स्वयमयमुपयोगो बिभ्रदात्मानमेकम् ।
कृतपरिणतिरात्माराम एव प्रवृत्तः ।।३१।।
अथैवं दर्शनज्ञानचारित्रपरिणतस्यास्यात्मनः कीद्रक् स्वरूपसंचेतनं भवतीत्यावेदयन्नुप- संहरति —
श्लोकार्थ : — [इति ] इसप्रकार पूर्वोक्तरूपसे भावक भाव और ज्ञेयभावोंसे भेदज्ञान होने पर [सर्वैः अन्यभावैः सह विवेके सति ] सर्व अन्यभावोंसे जब भिन्नता हुई तब [अयं उपयोगः ] यह उपयोग [स्वयं ] स्वयं ही [एकं आत्मानम् ] अपने एक आत्माको ही [बिभ्रत् ] धारण करता हुआ, [प्रकटितपरमार्थैः दर्शनज्ञानवृत्तैः कृतपरिणतिः ] जिनका परमार्थ प्रगट हुआ है ऐसे दर्शनज्ञानचारित्रसे जिसने परिणति की है ऐसा, [आत्म-आरामे एव प्रवृत्तः ] अपने आत्मारूपी बाग (क्रीड़ावन)में ही प्रवृत्ति करता है, अन्यत्र नहीं जाता ।
भावार्थ : — सर्व परद्रव्योंसे तथा उनसे उत्पन्न हुए भावोंसे जब भेद जाना तब उपयोगको रमणके लिये अपना आत्मा ही रहा, अन्य ठिकाना नहीं रहा । इसप्रकार दर्शनज्ञानचारित्रके साथ एकरूप हुआ वह आत्मामें ही रमण करता है ऐसा जानना ।३१।
अब, इसप्रकार दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप परिणत इस आत्माको स्वरूपका संचेतन कैसा होता है यह कहते हुए आचार्य इस कथनको समेटते हैं : —
कुछ अन्य वो मेरा तनिक परमाणुमात्र नहीं अरे ! ।।३८।।