मात्मानं ज्ञात्वा श्रद्धायानुचर्य च सम्यगेकात्मारामो भूतः स खल्वहमात्मात्मप्रत्यक्षं चिन्मात्रं
ज्योतिः, समस्तक्रमाक्रमप्रवर्तमानव्यावहारिकभावैः चिन्मात्राकारेणाभिद्यमानत्वादेकः, नारकादि-
जीवविशेषाजीवपुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षलक्षणव्यावहारिकनवतत्त्वेभ्यः टंकोत्कीर्णैकज्ञायक-
स्वभावभावेनात्यन्तविविक्तत्वात् शुद्धः, चिन्मात्रतया सामान्यविशेषोपयोगात्मकतानतिक्रमणाद्दर्शन-
ज्ञानमयः, स्पर्शरसगन्धवर्णनिमित्तसंवेदनपरिणतत्वेऽपि स्पर्शादिरूपेण स्वयमपरिणमनात् परमार्थतः
सदैवारूपी, इति प्रत्यगयं स्वरूपं संचेतयमानः प्रतपामि
अरूपी ] सदा अरूपी हूँ; [किंचित् अपि अन्यत् ] किंचित्मात्र भी अन्य परद्रव्य [परमाणुमात्रम्
अपि ] परमाणुमात्र भी [मम न अपि अस्ति ] मेरा नहीं है यह निश्चय है
जैसे कोई (पुरुष) मुट्ठीमें रखे हुए सोनेको भूल गया हो और फि र स्मरण करके उस सोनेको
देखे इस न्यायसे, अपने परमेश्वर (सर्व सामर्थ्यके धारक) आत्माको भूल गया था उसे
जानकर, उसका श्रद्धान कर और उसका आचरण करके (
क्रमरूप तथा अक्रमरूप प्रवर्तमान व्यावहारिक भावोंसे भेदरूप नहीं होता, इसलिये मैं एक हूँ;
नारक आदि जीवके विशेष, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्षस्वरूप
जो व्यावहारिक नव तत्त्व हैं उनसे, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावरूप भावके द्वारा, अत्यन्त
भिन्न हूँ, इसलिये मैं शुद्ध हूँ; चिन्मात्र होनेसे सामान्य-विशेष उपयोगात्मकताका उल्लंघन नहीं
करता, इसलिये मैं दर्शनज्ञानमय हूँ; स्पर्श, रस, गंध, वर्ण जिसका निमित्त है ऐसे संवेदनरूप
परिणमित होने पर भी स्पर्शादिरूप स्वयं परिणमित नहीं हुआ, इसलिये परमार्थसे मैं सदा ही