स्वरूपसम्पदा विश्वे परिस्फु रत्यपि न किंचनाप्यन्यत्परमाणुमात्रमप्यात्मीयत्वेन प्रतिभाति
यद्भावकत्वेन ज्ञेयत्वेन चैकीभूय भूयो मोहमुद्भावयति, स्वरसत एवापुनःप्रादुर्भावाय समूलं
मोहमुन्मूल्य महतो ज्ञानोद्योतस्य प्रस्फु रितत्वात् ।
(वसन्ततिलका)
मज्जन्तु निर्भरममी सममेव लोका
आलोकमुच्छलति शान्तरसे समस्ताः ।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
पूर्वरंग
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अरूपी हूँ । इसप्रकार सबसे भिन्न ऐसे स्वरूपका अनुभव करता हुआ यह मैं प्रतापवन्त रहा ।
इसप्रकार प्रतापवन्त वर्तते हुए ऐसे मुझे, यद्यपि (मुझसे) बाह्य अनेक प्रकारकी स्वरूप-
सम्पदाके द्वारा समस्त परद्रव्य स्फु रायमान हैं तथापि, कोई भी परद्रव्य परमाणुमात्र भी मुझरूप
भासते नहीं कि जो मुझे भावकरूप तथा ज्ञेयरूपसे मेरे साथ होकर पुनः मोह उत्पन्न करें;
क्योंकि निजरससे ही मोहको मूलसे उखाड़कर — पुनः अंकुरित न हो इसप्रकार नाश करके,
महान ज्ञानप्रकाश मुझे प्रगट हुआ है ।
भावार्थ : — आत्मा अनादि कालसे मोहके उदयसे अज्ञानी था, वह श्री गुरुओंके
उपदेशसे और स्व-काललब्धिसे ज्ञानी हुआ तथा अपने स्वरूपको परमार्थसे जाना कि मैं एक
हूँ, शुद्ध हूँ, अरूपी हूँ, दर्शनज्ञानमय हूँ । ऐसा जाननेसे मोहका समूल नाश हो गया, भावकभाव
और ज्ञेयभावसे भेदज्ञान हुआ, अपनी स्वरूपसंपदा अनुभवमें आई; तब फि र पुनः मोह कैसे
उत्पन्न हो सकता है ? नहीं हो सकता ।।३८।।
अब, ऐसा जो आत्मानुभव हुआ उसकी महिमा कहकर आचार्यदेव प्रेरणारूप काव्य
कहते हैं कि — ऐसे ज्ञानस्वरूप आत्मामें समस्त लोक निमग्न हो जाओ : —
श्लोकार्थ : — [एषः भगवान् अवबोधसिन्धुः ] यह ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मा [विभ्रम-
तिरस्करिणीं भरेण आप्लाव्य ]िवभ्रमरूपी आड़ी चादरको समूलतया डूबोकर (दूर करके)
[प्रोन्मग्नः ] स्वयं सर्वांग प्रगट हुआ है; [अमी समस्ताः लोकाः ] इसलिये अब यह समस्त लोक
[शान्तरसे ] उसके शान्त रसमें [समम् एव ] एक साथ ही [निर्भरम् ] अत्यन्त [मज्जन्तु ] मग्न
हो जाओ, कि जो शान्त रस [आलोकम् उच्छलति ] समस्त लोक पर्यन्त उछल रहा है ।
भावार्थ : — जैसे समुद्रके आड़े कुछ आ जाये तो जल दिखाई नहीं देता और जब वह
आड़ दूर हो जाती है तब जल प्रगट होता है; वह प्रगट होने पर, लोगोंको प्रेरणा योग्य होता
है कि ‘इस जलमें सभी लोग स्नान करो’; इसीप्रकार यह आत्मा विभ्रमसे आच्छादित था तब