आप्लाव्य विभ्रमतिरस्करिणीं भरेण
प्रोन्मग्न एष भगवानवबोधसिन्धुः ।।३२।।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
उसका स्वरूप दिखाई नहीं देता था; अब विभ्रम दूर हो जानेसे यथास्वरूप (ज्योंका त्यों
स्वरूप) प्रगट हो गया; इसलिए ‘अब उसके वीतराग विज्ञानरूप शान्तरसमें एक ही साथ सर्व
लोक मग्न होओ’ इसप्रकार आचार्यदेवने प्रेरणा की है । अथवा इसका अर्थ यह भी है कि जब
आत्माका अज्ञान दूर होता है तब केवलज्ञान प्रगट होता है और केवलज्ञान प्रगट होने पर समस्त
लोकमें रहनेवाले पदार्थ एक ही समय ज्ञानमें झलकते हैं उसे समस्त लोक देखो ।३२।
इसप्रकार इस समयप्राभृतग्रन्थकी आत्मख्याति नामक टीकामें टीकाकारने पूर्वरङ्गस्थल
कहा ।
यहाँ टीकाकारका यह आशय है कि इस ग्रन्थको अलङ्कारसे नाटकरूपमें वर्णन किया है ।
नाटकमें पहले रङ्गभूमि रची जाती है । वहाँ देखनेवाले नायक तथा सभा होती है और नृत्य (नाटय,
नाटक) करनेवाले होते हैं जो विविध प्रकारके स्वांग रचते हैं तथा श्रृङ्गारादिक आठ रसोंका रूप
दिखलाते हैं । वहाँ श्रृंगार, हास्य, रौद्र, करुणा, वीर, भयानक, बीभत्स और अद्भुत — यह आठ
रस लौकिक रस हैं; नाटकमें इन्हींका अधिकार है । नववाँ शान्तरस है जो कि अलौकिक है; नृत्यमें
उसका अधिकार नहीं है । इन रसोंके स्थायी भाव, सात्त्विक भाव, अनुभावी भाव, व्यभिचारी भाव
और उनकी दृष्टि आदिका वर्णन रसग्रन्थोंमें है वहाँसे जान लेना । सामान्यतया रसका यह स्वरूप
है कि ज्ञानमें जो ज्ञेय आया उसमें ज्ञान तदाकार हो जाय, उसमें पुरुषका भाव लीन हो जाय और
अन्य ज्ञेयकी इच्छा नहीं रहे सो रस है । उन आठ रसोंका रूप नृत्यमें नृत्यकार बतलाते हैं; और
उनका वर्णन करते हुए कवीश्वर जब अन्य रसको अन्य रसके समान कर भी वर्णन करते हैं तब
अन्य रसका अन्य रस अङ्गभूत होनेसे तथा अन्यभाव रसोंका अङ्ग होनेसे, रसवत् आदि अलङ्कारसे
उसे नृत्यरूपमें वर्णन किया जाता है ।
यहाँ पहले रंगभूमिस्थल कहा । वहाँ देखनेवाले तो सम्यग्दृष्टि पुरुष हैं और अन्य
मिथ्यादृष्टि पुरुषोंकी सभा है, उनको दिखलाते हैं । नृत्य करनेवाले जीव-अजीव पदार्थ हैं और
दोनोंका एकपना, कर्ताकर्मपना आदि उनके स्वांग हैं । उनमें वे परस्पर अनेकरूप होते हैं, —
आठ रसरूप होकर परिणमन करते हैं, सो वह नृत्य है । वहाँ सम्यग्दृष्टि दर्शक जीव-अजीवके
भिन्न स्वरूपको जानता है; वह तो इन सब स्वांगोंको कर्मकृत जानकर शान्त रसमें ही मग्न
है और मिथ्यादृष्टि जीव-अजीवका भेद नहीं जानते, इसलिये वे इन स्वांगोंको ही यथार्थ जानकर
उसमें लीन हो जाते हैं । उन्हें सम्यग्दृष्टि यथार्थ स्वरूप बतलाकर, उनका भ्रम मिटाकर, उन्हें