कथं चिदन्वयप्रतिभासेऽप्यध्यवसानादयः पुद्गलस्वभावा इति चेत् —
अट्ठविहं पि य कम्मं सव्वं पोग्गलमयं जिणा बेंति ।
जस्स फलं तं वुच्चदि दुक्खं ति विपच्चमाणस्स ।।४५।।
अष्टविधमपि च कर्म सर्वं पुद्गलमयं जिना ब्रुवन्ति ।
यस्य फलं तदुच्यते दुःखमिति विपच्यमानस्य ।।४५।।
अध्यवसानादिभावनिर्वर्तकमष्टविधमपि च कर्म समस्तमेव पुद्गलमयमिति किल सकलज्ञ-
ज्ञप्तिः । तस्य तु यद्विपाककाष्ठामधिरूढस्य फलत्वेनाभिलप्यते तदनाकुलत्वलक्षणसौख्याख्यात्म-
स्वभावविलक्षणत्वात्किल दुःखम् । तदन्तःपातिन एव किलाकुलत्वलक्षणा अध्यवसानादिभावाः ।
९४
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
होता हो तो उसका निषेध किया है । यदि समझनेमें अधिक काल लगे तो छह माससे
अधिक नहीं लगेगा; इसलिए अन्य निष्प्रयोजन कोलाहलका त्याग करके इसमें लग जानेसे
शीघ्र ही स्वरूपकी प्राप्ति हो जायगी ऐसा उपदेश है ।३४।
अब शिष्य पूछता है कि इन अध्यवसानादि भावोंको जीव नहीं कहा, अन्य
चैतन्यस्वभावको जीव कहा; तो यह भाव भी चैतन्यके साथ सम्बन्ध रखनेवाले प्रतिभासित
होते हैं, (वे चैतन्यके अतिरिक्त जड़के तो दिखाई नहीं देते) तथापि उन्हें पुद्गलके स्वभाव
क्यों कहा ? उसके उत्तरस्वरूप गाथासूत्र कहते हैं : —
रे ! कर्म अष्ट प्रकारका जिन सर्व पुद्गलमय कहे,
परिपाकमें जिस कर्मका फल दुःख नाम प्रसिद्ध है ।।४५।।
गाथार्थ : — [अष्टविधम् अपि च ] आठों प्रकारका [कर्म ] कर्म [सर्वं ] सब
[पुद्गलमयं ] पुद्गलमय है ऐसा [जिनाः ] जिनेन्द्रभगवान सर्वज्ञदेव [ब्रुवन्ति ] कहते हैं — [यस्य
विपच्यमानस्य ] जिस पक्व होकर उदयमें आनेवाले कर्मका [फलं ] फल [तत् ] प्रसिद्ध
[दुःखम् ] दुःख है [इति उच्यते ] ऐसा कहा है ।
टीका : — अध्यवसानादि समस्त भावोंको उत्पन्न करनेवाला जो आठों प्रकारका
ज्ञानावरणादि कर्म है वह सभी पुद्गलमय है ऐसा सर्वज्ञका वचन है । विपाककी मर्यादाको प्राप्त
उस कर्मके फलरूपसे जो कहा जाता है वह (अर्थात् कर्मफल), अनाकुलतालक्षण — सुखनामक
आत्मस्वभावसे विलक्षण है इसलिए, दुःख है । उस दुःखमें ही आकुलतालक्षण अध्यवसानादि भाव