स्वयमपि निभृतः सन् पश्य षण्मासमेकम् ।
ननु किमनुपलब्धिर्भाति किंचोपलब्धिः ।।३४।।
भावार्थ : — चैतन्यस्वभावरूप जीव, सर्व परभावोंसे भिन्न, भेदज्ञानियोंके गोचर हैं; इसलिए अज्ञानी जैसा मानते हैं वैसा नहीं है ।।४४।।
यहाँ पुद्गलसे भिन्न आत्माकी उपलब्धिके प्रति विरोध करनेवाले ( – पुद्गलको ही आत्मा जाननेवाले) पुरुषको (उसके हितरूप आत्मप्राप्तिकी बात कहकर) मिठासपूर्वक (और समभावसे) ही इसप्रकार उपदेश करना यह काव्यमें बतलाते हैं : —
श्लोकार्थ : — हे भव्य ! तुझे [अपरेण ] अन्य [अकार्य-कोलाहलेन ] व्यर्थ ही कोलाहल करनेसे [किम् ] क्या लाभ है ? तू [विरम ] इस कोलाहलसे विरक्त हो और [एकम् ] एक चैतन्यमात्र वस्तुको [स्वयम् अपि ] स्वयं [निभृतः सन् ] निश्चल लीन होकर [पश्य षण्मासम् ] देख; ऐसा छह मास अभ्यास कर और देख कि ऐसा करनेसे [हृदय- सरसि ] अपने हृदयसरोवरमें, [पुद्गलात् भिन्नधाम्नः ] जिसका तेज-प्रताप-प्रकाश पुद्गलसे भिन्न है ऐसे उस [पुंसः ] आत्माकी [ननु किम् अनुपलब्धिः भाति ] प्राप्ति नहीं होती है [किं च उपलब्धिः ] या होती है ?
भावार्थ : — यदि अपने स्वरूपका अभ्यास करे तो उसकी प्राप्ति अवश्य होती है; यदि परवस्तु हो तो उसकी तो प्राप्ति नहीं होती । अपना स्वरूप तो विद्यमान है, किन्तु उसे भूल रहा है; यदि सावधान होकर देखे तो वह अपने निकट ही है । यहाँ छह मासके अभ्यासकी बात कही है इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि इतना ही समय लगेगा । उसकी प्राप्ति तो अन्तर्मुहूर्तमात्रमें ही हो सकती है, परन्तु यदि शिष्यको बहुत कठिन मालूम