Samaysar (Hindi). Kalash: 34.

< Previous Page   Next Page >


Page 93 of 642
PDF/HTML Page 126 of 675

 

background image
स्वयमुपलभ्यमानत्वात् न खल्वर्थक्रियासमर्थः कर्मसंयोगो जीवः कर्मसंयोगात् खट्वाशायिनः
पुरुषस्येवाष्टकाष्ठसंयोगादतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वादिति
इह खलु पुद्गलभिन्नात्मोपलब्धिं प्रति विप्रतिपन्नः साम्नैवैवमनुशास्यः
(मालिनी)
विरम किमपरेणाकार्यकोलाहलेन
स्वयमपि निभृतः सन
् पश्य षण्मासमेकम्
हृदयसरसि पुंसः पुद्गलाद्भिन्नधाम्नो
ननु किमनुपलब्धिर्भाति किंचोपलब्धिः
।।३४।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
जीव-अजीव अधिकार
९३
हैं ।८। (इसीप्रकार अन्य कोई दूसरे प्रकारसे कहे तो वहाँ भी यही युक्ति जानना )
भावार्थ :चैतन्यस्वभावरूप जीव, सर्व परभावोंसे भिन्न, भेदज्ञानियोंके गोचर हैं;
इसलिए अज्ञानी जैसा मानते हैं वैसा नहीं है ।।४४।।
यहाँ पुद्गलसे भिन्न आत्माकी उपलब्धिके प्रति विरोध करनेवाले (पुद्गलको ही
आत्मा जाननेवाले) पुरुषको (उसके हितरूप आत्मप्राप्तिकी बात कहकर) मिठासपूर्वक (और
समभावसे) ही इसप्रकार उपदेश करना यह काव्यमें बतलाते हैं :
श्लोकार्थ :हे भव्य ! तुझे [अपरेण ] अन्य [अकार्य-कोलाहलेन ] व्यर्थ ही
कोलाहल करनेसे [किम् ] क्या लाभ है ? तू [विरम ] इस कोलाहलसे विरक्त हो और
[एकम् ] एक चैतन्यमात्र वस्तुको [स्वयम् अपि ] स्वयं [निभृतः सन् ] निश्चल लीन होकर
[पश्य षण्मासम् ] देख; ऐसा छह मास अभ्यास कर और देख कि ऐसा करनेसे [हृदय-
सरसि ]
अपने हृदयसरोवरमें, [पुद्गलात् भिन्नधाम्नः ] जिसका तेज-प्रताप-प्रकाश पुद्गलसे
भिन्न है ऐसे उस [पुंसः ] आत्माकी [ननु किम् अनुपलब्धिः भाति ] प्राप्ति नहीं होती है [किं
च उपलब्धिः ]
या होती है ?
भावार्थ :यदि अपने स्वरूपका अभ्यास करे तो उसकी प्राप्ति अवश्य होती है;
यदि परवस्तु हो तो उसकी तो प्राप्ति नहीं होती अपना स्वरूप तो विद्यमान है, किन्तु उसे
भूल रहा है; यदि सावधान होकर देखे तो वह अपने निकट ही है यहाँ छह मासके
अभ्यासकी बात कही है इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि इतना ही समय लगेगा
उसकी प्राप्ति तो अन्तर्मुहूर्तमात्रमें ही हो सकती है, परन्तु यदि शिष्यको बहुत कठिन मालूम