द्यनन्तपूर्वापरीभूतावयवैकसंसरणलक्षणक्रियारूपेण क्रीडत्कर्मैव जीवः कर्मणोऽतिरिक्तत्वेनान्यस्य
चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खलु तीव्रमन्दानुभवभिद्यमानदुरन्तरागरस-
निर्भराध्यवसानसन्तानो जीवस्ततोऽतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्य-
मानत्वात् । न खलु नवपुराणावस्थादिभेदेन प्रवर्तमानं नोकर्म जीवः शरीरादतिरिक्तत्वेनान्यस्य
चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खलु विश्वमपि पुण्यपापरूपेणाक्रामन्
कर्मविपाको जीवः शुभाशुभभावादतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्य-
मानत्वात् । न खलु सातासातरूपेणाभिव्याप्तसमस्ततीव्रमन्दत्वगुणाभ्यां भिद्यमानः कर्मानुभवो जीवः
सुखदुःखातिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खलु मज्जिताव-
दुभयात्मकत्वादात्मकर्मोभयं जीवः कार्त्स्न्यतः कर्मणोऽतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
उपलभ्यमान है अर्थात् वे चैतन्यभावको प्रत्यक्ष भिन्न अनुभव करते हैं ।१। अनादि जिसका
पूर्व अवयव है और अनन्त जिसका भविष्यका अवयव है ऐसी एक संसरणरूप क्रियाके
रूपमें क्रीड़ा करता हुआ कर्म भी जीव नहीं है; क्योंकि कर्मसे भिन्न अन्य चैतन्यभावस्वरूप
जीव भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं ।२।
तीव्र-मन्द अनुभवसे भेदरूप होनेवाले, दुरन्त रागरससे भरे हुए अध्यवसानोंकी संतति भी जीव
नहीं है; क्योंकि उस संततिसे भिन्न अन्य चैतन्यभावरूप जीव भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं
उपलभ्यमान है अर्थात् वे उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं ।३। नई-पुरानी अवस्थादिकके भेदसे
प्रवर्तमान नोकर्म भी जीव नहीं है; क्योंकि शरीरसे भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव
भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे उसे प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं ।४। समस्त
जगतको पुण्य-पापरूपसे व्याप्त करता कर्मविपाक भी जीव नहीं है; क्योंकि शुभाशुभ भावसे
भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं
उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं ।५। साता-असातारूपसे व्याप्त समस्त तीव्रमन्दतारूप गुणोंके
द्वारा भेदरूप होनेवाला कर्मका अनुभव भी जीव नहीं है; क्योंकि सुख-दुःखसे भिन्न अन्य
चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष
अनुभव करते हैं ।६। श्रीखण्डकी भाँति उभयात्मकरूपसे मिले हुए आत्मा और कर्म दोनों
मिलकर भी जीव नहीं हैं; क्योंकि सम्पूर्णतया कर्मोंसे भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव
भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं उपलभ्यमान हैं अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं ।७।
अर्थक्रियामें समर्थ कर्मका संयोग भी जीव नहीं है क्योंकि, आठ लकड़ियोंके संयोगसे (-
पलंगसे) भिन्न पलंग पर सोनेवाले पुरुषकी भांति, कर्मसंयोगसे भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप
जीव भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते