एदे सव्वे भावा पोग्गलदव्वपरिणामणिप्पण्णा ।
केवलिजिणेहिं भणिया कह ते जीवो त्ति वुच्चंति ।।४४।।
एते सर्वे भावाः पुद्गलद्रव्यपरिणामनिष्पन्नाः ।
केवलिजिनैर्भणिताः कथं ते जीव इत्युच्यन्ते ।।४४।।
यतः एतेऽध्यवसानादयः समस्ता एव भावा भगवद्भिर्विश्वसाक्षिभिरर्हद्भिः
पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वेन प्रज्ञप्ताः सन्तश्चैतन्यशून्यात्पुद्गलद्रव्यादतिरिक्तत्वेन प्रज्ञाप्यमानं
चैतन्यस्वभावं जीवद्रव्यं भवितुं नोत्सहन्ते; ततो न खल्वागमयुक्तिस्वानुभवैर्बाधितपक्षत्वात्त-
दात्मवादिनः परमार्थवादिनः । एतदेव सर्वज्ञवचनं तावदागमः । इयं तु स्वानुभवगर्भिता युक्तिः —
न खलु नैसर्गिकरागद्वेषकल्माषितमध्यवसानं जीवः तथाविधाध्यवसानात् कार्तस्वरस्येव श्यामिकाया
अतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खल्वना-
कहानजैनशास्त्रमाला ]
जीव-अजीव अधिकार
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पुद्गलदरव परिणामसे उपजे हुए सब भाव ये
सब केवलीजिन भाषिया, किस रीत जीव कहो उन्हें ? ४४।।
गाथार्थ : — [एते ] यह पूर्वकथित अध्यवसान आदि [सर्वे भावाः ] भाव हैं वे सभी
[पुद्गलद्रव्यपरिणामनिष्पन्नाः ] पुद्गलद्रव्यके परिणामसे उत्पन्न हुए हैं इसप्रकार [केवलिजिनैः ]
केवली सर्वज्ञ जिनेन्द्रदेवोंने [भणिताः ] कहा है [ते ] उन्हें [जीवः इति ] जीव ऐसा [कथं
उच्यन्ते ] कैसे कहा जा सकता है ?
टीका : — यह समस्त ही अध्यवसानादि भाव, विश्वके (समस्त पदार्थोंके) साक्षात्
देखनेवाले भगवान (वीतराग सर्वज्ञ) अरहंतदेवोंके द्वारा पुद्गलद्रव्यके परिणाममय कहे गये
हैं इसलिये, वे चैतन्यस्वभावमय जीवद्रव्य होनेके लिये समर्थ नहीं हैं कि जो जीवद्रव्य
चैतन्यभावसे शून्य ऐसे पुद्गलद्रव्यसे अतिरिक्त (भिन्न) कहा गया है; इसलिये जो इन
अध्यवसानादिकको जीव कहते हैं वे वास्तवमें परमार्थवादी नहीं हैं; क्योंकि आगम, युक्ति
और स्वानुभवसे उनका पक्ष बाधित है । उसमें, ‘वे जीव नहीं हैं ’ यह सर्वज्ञका वचन है
वह तो आगम है और वह (निम्नोक्त) स्वानुभवगर्भित युक्ति है : — स्वयमेव उत्पन्न हुए
राग-द्वेषके द्वारा मलिन अध्यवसान हैं वे जीव नहीं है; क्योंकि, कालिमासे भिन्न सुवर्णकी
भांति, तथाविध अध्यवसानसे भिन्न अन्य चित्स्वभावरूप जीव भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं