परमार्थवादिभिः परमार्थवादिन इति निर्दिश्यन्ते ।
कुतः — कहते हैं कि साता-असातारूपसे व्याप्त समस्त तीव्रमन्दत्वगुणोंसे भेदरूप होनेवाला कर्मका अनुभव ही जीव है, क्योंकि सुखःदुखसे अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता ।६। कोई कहते हैं कि श्रीखण्डकी भाँति उभयरूप मिले हुए आत्मा और कर्म, दोनों मिलकर ही जीव हैं, क्योंकि सम्पूर्णतया कर्मोंसे भिन्न अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता ।७। कोई कहते हैं कि अर्थक्रियामें (प्रयोजनभूत क्रियामें) समर्थ ऐसा जो कर्मका संयोग वह ही जीव है, क्योंकि जैसे आठ लकड़ियोंके संयोगसे भिन्न अलग कोई पलंग दिखाई नहीं देता इसी प्रकार कर्मोंके संयोगसे अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता । (आठ लकड़ियां मिलकर पलंग बना तब वह अर्थक्रियामें समर्थ हुआ; इसीप्रकार यहाँ भी जानना ।) ।८। इसप्रकार आठ प्रकार तो यह कहे और ऐसे ऐसे अन्य भी अनेक प्रकारके दुर्बुद्धि (विविध प्रकारसे) परको आत्मा कहते हैं; परन्तु परमार्थके ज्ञाता उन्हें सत्यार्थवादी नहीं कहते ।
भावार्थ : — जीव-अजीव दोनों अनादिकालसे एकक्षेत्रावगाहसंयोगरूपसे मिले हुए हैं, और अनादिकालसे ही पुद्गलके संयोगसे जीवकी अनेक विकारसहित अवस्थायें हो रही हैं । परमार्थदृष्टिसे देखने पर, जीव तो अपने चैतन्यत्व आदि भावोंको नहीं छोड़ता और पुद्गल अपने मूर्तिक जड़त्व आदिको नहीं छोड़ता । परन्तु जो परमार्थको नहीं जानते वे संयोगसे हुए भावोंको ही जीव कहते हैं; क्योंकि परमार्थसे जीवका स्वरूप पुद्गलसे भिन्न सर्वज्ञको दिखाई देता है तथा सर्वज्ञकी परम्पराके आगमसे जाना जा सकता है, इसलिये जिनके मतमें सर्वज्ञ नहीं हैं वे अपनी बुद्धिसे अनेक कल्पनायें करके कहते हैं । उनमेंसे वेदान्ती, मीमांसक, सांख्य, योग, बौद्ध, नैयायिक, वैशेषिक, चार्वाक आदि मतोंके आशय लेकर आठ प्रकार तो प्रगट कहे हैं; और अन्य भी अपनी-अपनी बुद्धिसे अनेक कल्पनायें करके अनेक प्रकारसे कहते हैं सो कहाँ तक कहा जाये ?।३९ से ४३।।