इह खलु तदसाधारणलक्षणाकलनात्क्लीबत्वेनात्यन्तविमूढाः सन्तस्तात्त्विकमात्मान-
मजानन्तो बहवो बहुधा परमप्यात्मानमिति प्रलपन्ति । नैसर्गिकरागद्वेषकल्माषित-
मध्यवसानमेव जीवस्तथाविधाध्यवसानात् अंगारस्येव कार्ष्ण्यादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुप-
लभ्यमानत्वादिति केचित् । अनाद्यनन्तपूर्वापरीभूतावयवैकसंसरणक्रियारूपेण क्रीडत्कर्मैव
जीवः कर्मणोऽतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । तीव्रमन्दानुभवभिद्यमानदुरंत-
रागरसनिर्भराध्यवसानसंतान एव जीवस्ततोऽतिरिक्तस्यान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् ।
नवपुराणावस्थादिभावेन प्रवर्तमानं नोकर्मैव जीवः शरीरादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानु-
पलभ्यमानत्वादिति केचित् । विश्वमपि पुण्यपापरूपेणाक्रामन् कर्मविपाक एव जीवः
शुभाशुभभावादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । सातासातरूपेणाभि-
व्याप्तसमस्ततीव्रमन्दत्वगुणाभ्यां भिद्यमानः कर्मानुभव एव जीवः सुखदुःखातिरिक्तत्वे-
कहानजैनशास्त्रमाला ]
जीव-अजीव अधिकार
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मिथ्यादृष्टि जीव [परम् ] परको [आत्मानं ] आत्मा [वदन्ति ] कहते हैं । [ते ] उन्हें
[निश्चयवादिभिः ] निश्चयवादियोंने ( — सत्यार्थवादियोंने) [परमार्थवादिनः ] परमार्थवादी
( — सत्यार्थवक्ता) [न निर्दिष्टाः ] नहीं कहा है ।
टीका : — इस जगतमें आत्माका असाधारण लक्षण न जाननेके कारण नपुंसकतासे
अत्यन्त विमूढ़ होते हुए, तात्त्विक (परमार्थभूत) आत्माको न जाननेवाले बहुतसे अज्ञानी जन
अनेक प्रकारसे परको भी आत्मा कहते हैं, बकते हैं । कोई तो ऐसा कहते हैं कि स्वाभाविक
अर्थात् स्वयमेव उत्पन्न हुए राग-द्वेषके द्वारा मलिन जो अध्यवसान (अर्थात् मिथ्या अभिप्राय
युक्त विभावपरिणाम) वह ही जीव है, क्योंकि जैसे कालेपनसे अन्य अलग कोई कोयला
दिखाई नहीं देता उसीप्रकार तथाविध अध्यवसानसे भिन्न अन्य कोई आत्मा दिखाई नहीं
देता ।१। कोई कहते हैं कि अनादि जिसका पूर्व अवयव है और अनन्त जिसका भविष्यका
अवयव है ऐसी एक संसरणरूप (भ्रमणरूप) जो क्रिया है उसरूपसे क्रीड़ा करता हुआ
कर्म ही जीव है, क्योंकि कर्मसे भिन्न अन्य कोई जीव दिखाई नहीं देता ।२। कोई कहते
हैं कि तीव्र-मन्द अनुभवसे भेदरूप होनेवाले, दुरन्त (जिसका अन्त दूर है ऐसा) रागरूप
रससे भरे हुए अध्यवसानोंकी सन्तति (परिपाटी) ही जीव है, क्योंकि उससे अन्य अलग
कोई जीव दिखाई नहीं देता ।३। कोई कहते हैं कि नई और पुरानी अवस्था इत्यादि भावसे
प्रवर्तमान नोकर्म ही जीव है, क्योंकि शरीरसे अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता ।४।
कोई यह कहते हैं कि समस्त लोकको पुण्यपापरूपसे व्याप्त करता हुआ कर्मका विपाक
ही जीव है, क्योंकि शुभाशुभ भावसे अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता ।५। कोई