मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्षस्याभावः ।
परमार्थका कहनेवाला है इसलिए, अपरमार्थभूत होने पर भी, धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति करनेके लिए (व्यवहारनय) बतलाना न्यायसङ्गत ही है । परन्तु यदि व्यवहारनय न बताया जाये तो, परमार्थसे ( – निश्चयनयसे) जीव शरीरसे भिन्न बताये जानेके कारण, जैसे भस्मको मसल देनेमें हिंसाका अभाव है उसीप्रकार, त्रसस्थावर जीवोंको निःशंकतया मसल देने – कुचल देने (घात करने)में भी हिंसाका अभाव ठहरेगा और इस कारण बन्धका ही अभाव सिद्ध होगा; तथा परमार्थके द्वारा जीव रागद्वेषमोहसे भिन्न बताये जानेके कारण, ‘रागी, द्वेषी, मोही जीव कर्मसे बँधता है उसे छुड़ाना’ — इसप्रकार मोक्षके उपायके ग्रहणका अभाव हो जायेगा और इससे मोक्षका ही अभाव होगा । (इसप्रकार यदि व्यवहारनय न बताया जाय तो बन्ध-मोक्षका अभाव ठहरता है ।)
भावार्थ : — परमार्थनय तो जीवको शरीर तथा रागद्वेषमोहसे भिन्न कहता है । यदि इसीका एकान्त ग्रहण किया जाये तो शरीर तथा रागद्वेषमोह पुद्गलमय सिद्ध होंगे, तो फि र पुद्गलका घात करनेसे हिंसा नहीं होगी तथा रागद्वेषमोहसे बन्ध नहीं होगा । इसप्रकार, परमार्थसे जो संसार-मोक्ष दोनोंका अभाव कहा है एकान्तसे यह ही ठहरेगा । किन्तु ऐसा एकान्तरूप वस्तुका स्वरूप नहीं है; अवस्तुका श्रद्धान, ज्ञान, आचरण अवस्तुरूप ही है । इसलिये व्यवहारनयका उपदेश न्यायप्राप्त है । इसप्रकार स्याद्वादसे दोनों नयोंका विरोध मिटाकर श्रद्धान करना सो सम्यक्त्व है ।।४६।।
अब शिष्य पूछता है कि यह व्यवहारनय किस दृष्टान्तसे प्रवृत्त हुआ है ? उसका उत्तर कहते हैं : —