भेददर्शनात्त्रसस्थावराणां भस्मन इव निःशंक मुपमर्दनेन हिंसाऽभावाद्भवत्येव बन्धस्याभावः । तथा
रक्तद्विष्टविमूढो जीवो बध्यमानो मोचनीय इति रागद्वेषमोहेभ्यो जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनेन
मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्षस्याभावः ।
अथ केन दृष्टान्तेन प्रवृत्तो व्यवहार इति चेत् —
राया हु णिग्गदो त्ति य एसो बलसमुदयस्स आदेसो ।
ववहारेण दु वुच्चदि तत्थेक्को णिग्गदो राया ।।४७।।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
परमार्थका कहनेवाला है इसलिए, अपरमार्थभूत होने पर भी, धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति करनेके लिए
(व्यवहारनय) बतलाना न्यायसङ्गत ही है । परन्तु यदि व्यवहारनय न बताया जाये तो,
परमार्थसे ( – निश्चयनयसे) जीव शरीरसे भिन्न बताये जानेके कारण, जैसे भस्मको मसल देनेमें
हिंसाका अभाव है उसीप्रकार, त्रसस्थावर जीवोंको निःशंकतया मसल देने – कुचल देने (घात
करने)में भी हिंसाका अभाव ठहरेगा और इस कारण बन्धका ही अभाव सिद्ध होगा; तथा
परमार्थके द्वारा जीव रागद्वेषमोहसे भिन्न बताये जानेके कारण, ‘रागी, द्वेषी, मोही जीव कर्मसे
बँधता है उसे छुड़ाना’ — इसप्रकार मोक्षके उपायके ग्रहणका अभाव हो जायेगा और इससे
मोक्षका ही अभाव होगा । (इसप्रकार यदि व्यवहारनय न बताया जाय तो बन्ध-मोक्षका
अभाव ठहरता है ।)
भावार्थ : — परमार्थनय तो जीवको शरीर तथा रागद्वेषमोहसे भिन्न कहता है । यदि
इसीका एकान्त ग्रहण किया जाये तो शरीर तथा रागद्वेषमोह पुद्गलमय सिद्ध होंगे, तो फि र
पुद्गलका घात करनेसे हिंसा नहीं होगी तथा रागद्वेषमोहसे बन्ध नहीं होगा । इसप्रकार,
परमार्थसे जो संसार-मोक्ष दोनोंका अभाव कहा है एकान्तसे यह ही ठहरेगा । किन्तु ऐसा
एकान्तरूप वस्तुका स्वरूप नहीं है; अवस्तुका श्रद्धान, ज्ञान, आचरण अवस्तुरूप ही है ।
इसलिये व्यवहारनयका उपदेश न्यायप्राप्त है । इसप्रकार स्याद्वादसे दोनों नयोंका विरोध मिटाकर
श्रद्धान करना सो सम्यक्त्व है ।।४६।।
अब शिष्य पूछता है कि यह व्यवहारनय किस दृष्टान्तसे प्रवृत्त हुआ है ? उसका उत्तर
कहते हैं : —
‘निर्गमन इस नृपका हुआ’ — निर्देश सैन्यसमूहमें,
व्यवहारसे कहलाय यह, पर भूप इसमें एक है; ।।४७।।