यथैष राजा पंच योजनान्यभिव्याप्य निष्क्रामतीत्येकस्य पंच योजनान्यभिव्याप्तुम- शक्यत्वाद्वयवहारिणां बलसमुदाये राजेति व्यवहारः, परमार्थतस्त्वेक एव राजा; तथैष जीवः समग्रं रागग्राममभिव्याप्य प्रवर्तत इत्येकस्य समग्रं रागग्राममभिव्याप्तुमशक्यत्वाद्वयवहारिणामध्यव- सानादिष्वन्यभावेषु जीव इति व्यवहारः, परमार्थतस्त्वेक एव जीवः ।
— शास्त्रन किया व्यवहार, पर वहां जीव निश्चय एक है ।।४८।।
गाथार्थ : — जैसे कोई राजा सेनासहित निकला वहाँ [राजा खलु निर्गतः ] ‘यह राजा निकला’ [इति एषः ] इसप्रकार जो यह [बलसमुदयस्य ] सेनाके समुदायको [आदेशः ] कहा जाता है सो वह [व्यवहारेण तु उच्यते ] व्यवहारसे कहा जाता है, [तत्र ] उस सेनामें (वास्तवमें) [एकः निर्गतः राजा ] राजा तो एक ही निकला है; [एवम् एव च ] उसीप्रकार [अध्यवसानाद्यन्यभावानाम् ] अध्यवसानादि अन्यभावोंको [जीवः इति ] ‘(यह) जीव है’ इसप्रकार [सूत्रे ] परमागममें कहा है सो [व्यवहारः कृतः ] व्यवहार किया है, [तत्र निश्चितः ] यदि निश्चयसे विचार किया जाये तो उनमें [जीवः एकः ] जीव तो एक ही है
टीका : — जैसे यह कहना कि यह राजा पाँच योजनके विस्तारमें निकल रहा है सो यह व्यवहारीजनोंका सेना समुदायमें राजा कह देनेका व्यवहार है; क्योंकि एक राजाका पाँच योजनमें फै लना अशक्य है; परमार्थसे तो राजा एक ही है, (सेना राजा नहीं है); उसीप्रकार यह जीव समग्र (समस्त) रागग्राममें ( – रागके स्थानोंमें) व्याप्त होकर प्रवृत्त हो रहा है ऐसा कहना वह, व्यवहारीजनोंका अध्यवसानादि अन्यभावोंमें जीव कहनेका व्यवहार है; क्योंकि एक जीवका समग्र रागग्राममें व्याप्त होना अशक्य है; परमार्थसे तो जीव एक ही है, (अध्यवसानादिक भाव जीव नहीं हैं) ।।४७-४८।।