यद्येवं तर्हि किंलक्षणोऽसावेकष्टङ्कोत्कीर्णः परमार्थजीव इति पृष्टः प्राह —
अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं ।
जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ।।४९।।
अरसमरूपमगन्धमव्यक्तं चेतनागुणमशब्दम् ।
जानीहि अलिङ्गग्रहणं जीवमनिर्दिष्टसंस्थानम् ।।४९।।
यः खलु पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमानरसगुणत्वात्, पुद्गलद्रव्यगुणेभ्यो भिन्नत्वेन
स्वयमरसगुणत्वात्, परमार्थतः पुद्गलद्रव्यस्वामित्वाभावाद द्रव्येन्द्रियावष्टम्भेनारसनात्, स्वभावतः
क्षायोपशमिकभावाभावाद्भावेन्द्रियावलम्बेनारसनात्, सकलसाधारणैकसंवेदनपरिणामस्वभावत्वात्
केवलरसवेदनापरिणामापन्नत्वेनारसनात्, सकलज्ञेयज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधाद्रसपरिच्छेदपरिणत-
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
अब शिष्य पूछता है कि यह अध्यवसानादि भाव जीव नहीं हैं तो वह एक, टंकोत्कीर्ण,
परमार्थस्वरूप जीव कैसा है ? उसका लक्षण क्या है ? इस प्रश्नका उत्तर कहते हैं : —
जीव चेतनागुण, शब्द-रस-रूप-गन्ध-व्यक्तिविहीन है,
निर्दिष्ट नहिं संस्थान उसका, ग्रहण नहिं है लिंगसे ।।४९।।
गाथार्थ : — हे भव्य ! तू [जीवम् ] जीवको [अरसम् ] रसरहित, [अरूपम् ] रूपरहित,
[अगन्धम् ] गन्धरहित, [अव्यक्त म् ] अव्यक्त अर्थात् इन्द्रियगोचर नहीं ऐसा, [चेतनागुणम् ] चेतना
जिसका गुण है ऐसा, [अशब्दम् ] शब्दरहित, [अलिङ्गग्रहणं ] किसी चिह्नसे ग्रहण न होनेवाला
और [अनिर्दिष्टसंस्थानम् ] जिसका आकार नहीं कहा जाता ऐसा [जानीहि ] जान ।
टीका : — जीव निश्चयसे पुद्गलद्रव्यसे अन्य है, इसलिये उसमें रसगुण विद्यमान नहीं है
अतः वह अरस है ।१। पुद्गलद्रव्यके गुणोंसे भी भिन्न होनेसे स्वयं भी रसगुण नहीं है, इसलिये
अरस है ।२। परमार्थसे पुद्गलद्रव्यका स्वामित्व भी उसके नहीं है, इसलिये वह द्रव्येन्द्रियके
आलम्बनसे भी रस नहीं चखता अतः अरस है ।३। अपने स्वभावकी दृष्टिसे देखा जाय तो उसके
क्षायोपशमिक भावका भी अभाव होनेसे वह भावेन्द्रियके आलम्बनसे भी रस नहीं चखता, इसलिये
अरस है ।४। समस्त विषयोंके विशेषोंमें साधारण ऐसे एक ही संवेदनपरिणामरूप उसका स्वभाव
होनेसे वह केवल एक रसवेदनापरिणामको पाकर रस नहीं चखता, इसलिये अरस है ।५। (उसे
समस्त ज्ञेयोंका ज्ञान होता है परन्तु) सकल ज्ञेयज्ञायकके तादात्म्यका ( – एकरूप होनेका) निषेध