कुतो जीवस्य वर्णादिभिः सह तादात्म्यलक्षणः सम्बन्धो नास्तीति चेत् —
तत्थ भवे जीवाणं संसारत्थाण होंति वण्णादी ।
संसारपमुक्काणं णत्थि हु वण्णादओ केई ।।६१।।
तत्र भवे जीवानां संसारस्थानां भवन्ति वर्णादयः ।
संसारप्रमुक्तानां न सन्ति खलु वर्णादयः केचित् ।।६१।।
यत्किल सर्वास्वप्यवस्थासु यदात्मकत्वेन व्याप्तं भवति तदात्मकत्वव्याप्तिशून्यं न भवति,
तस्य तैः सह तादात्म्यलक्षणः सम्बन्धः स्यात् । ततः सर्वास्वप्यवस्थासु वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्य
भवतो वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तिशून्यस्याभवतश्च पुद्गलस्य वर्णादिभिः सह तादात्म्यलक्षणः
संबंधः स्यात्; संसारावस्थायां कथंचिद्वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्य भवतो वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्ति-
शून्यस्याभवतश्चापि मोक्षावस्थायां सर्वथा वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तिशून्यस्य भवतो वर्णाद्यात्म-
कहानजैनशास्त्रमाला ]
जीव-अजीव अधिकार
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अब यहाँ प्रश्न होता है कि वर्णादिके साथ जीवका तादात्म्यलक्षण सम्बन्ध क्यों नहीं है ?
उसके उत्तरस्वरूप गाथा कहते हैं : —
संसारी जीवके वर्ण आदिक भाव हैं संसारमें,
संसारसे परिमुक्तके नहिं भाव को वर्णादिके ।।६१।।
गाथार्थ : — [वर्णादयः ] जो वर्णादिक हैं वे [संसारस्थानां ] संसारमें स्थित [जीवानां ]
जीवोंके [तत्र भवे ] उस संसारमें [भवन्ति ] होते हैं और [संसारप्रमुक्तानां ] संसारसे मुक्त हुए
जीवोंके [खलु ] निश्चयसे [वर्णादयः के चित् ] वर्णादिक कोई भी (भाव) [न सन्ति ] नहीं है;
(इसलिये तादात्म्यसम्बन्ध नहीं है) ।
टीका : — जो निश्चयसे समस्त ही अवस्थाओंमें यद्-आत्मकपनेसे अर्थात् जिस
-स्वरूपपनेसे व्याप्त हो और तद्-आत्मकपनेकी अर्थात् उस-स्वरूपपनेकी व्याप्तिसे रहित न हो,
उसका उनके साथ तादात्म्यलक्षण सम्बन्ध होता है । (जो वस्तु सर्व अवस्थाओंमें जिस भावस्वरूप
हो और किसी अवस्थामें उस भावस्वरूपताको न छोड़े, उस वस्तुका उन भावोंके साथ
तादात्म्यसम्बन्ध होता है ।) इसलिये सभी अवस्थाओंमें जो वर्णादिस्वरूपतासे व्याप्त होता है और
वर्णादिस्वरूपताकी व्याप्तिसे रहित नहीं होता ऐसे पुद्गलका वर्णादिभावोंके साथ तादात्म्यलक्षण
सम्बन्ध है; और यद्यपि संसार-अवस्थामें कथंचित् वर्णादिस्वरूपतासे व्याप्त होता है तथा