कहानजैनशास्त्रमाला ]
जीव-अजीव अधिकार
११७
पुद्गलद्रव्यमनुगच्छन्तः पुद्गलस्य वर्णादितादात्म्यं प्रथयन्ति, तथा वर्णादयो भावाः क्रमेण
भाविताविर्भावतिरोभावाभिस्ताभिस्ताभिर्व्यक्तिभिर्जीवमनुगच्छन्तो जीवस्य वर्णादितादात्म्यं प्रथयन्तीति
यस्याभिनिवेशः तस्य शेषद्रव्यासाधारणस्य वर्णाद्यात्मकत्वस्य पुद्गललक्षणस्य जीवेन स्वीकरणा-
ज्जीवपुद्गलयोरविशेषप्रसक्तौ सत्यां पुद्गलेभ्यो भिन्नस्य जीवद्रव्यस्याभावाद्भवत्येव जीवाभावः ।
भाविताविर्भावतिरोभावाभिस्ताभिस्ताभिर्व्यक्तिभिर्जीवमनुगच्छन्तो जीवस्य वर्णादितादात्म्यं प्रथयन्तीति
यस्याभिनिवेशः तस्य शेषद्रव्यासाधारणस्य वर्णाद्यात्मकत्वस्य पुद्गललक्षणस्य जीवेन स्वीकरणा-
ज्जीवपुद्गलयोरविशेषप्रसक्तौ सत्यां पुद्गलेभ्यो भिन्नस्य जीवद्रव्यस्याभावाद्भवत्येव जीवाभावः ।
संसारावस्थायामेव जीवस्य वर्णादितादात्म्यमित्यभिनिवेशेऽप्ययमेव दोषः —
अह संसारत्थाणं जीवाणं तुज्झ होंति वण्णादी ।
तम्हा संसारत्था जीवा रूवित्तमावण्णा ।।६३।।
एवं पोग्गलदव्वं जीवो तहलक्खणेण मूढमदी ।
णिव्वाणमुवगदो वि य जीवत्तं पोग्गलो पत्तो ।।६४।।
द्वारा) पुद्गलद्रव्यके साथ ही रहते हुए, पुद्गलका वर्णादिके साथ तादात्म्य प्रसिद्ध करते हैं —
विस्तारते हैं, इसीप्रकार वर्णादिकभाव, क्रमशः आविर्भाव और तिरोभावको प्राप्त होनेवाली ऐसी
उन-उन व्यक्तियोंके द्वारा जीवके साथ ही साथ रहते हुए, जीवका वर्णादिकके साथ तादात्म्य
प्रसिद्ध करते हैं, विस्तारते हैं — ऐसा जिसका अभिप्राय है उसके मतमें, अन्य शेष द्रव्योंसे
उन-उन व्यक्तियोंके द्वारा जीवके साथ ही साथ रहते हुए, जीवका वर्णादिकके साथ तादात्म्य
प्रसिद्ध करते हैं, विस्तारते हैं — ऐसा जिसका अभिप्राय है उसके मतमें, अन्य शेष द्रव्योंसे
असाधारण ऐसी वर्णादिस्वरूपता — कि जो पुद्गलद्रव्यका लक्षण है — उसका जीवके द्वारा
अङ्गीकार किया जाता है इसलिये, जीव-पुद्गलके अविशेषका प्रसङ्ग आता है, और ऐसा होने
पर, पुद्गलोंसे भिन्न ऐसा कोई जीवद्रव्य न रहनेसे, जीवका अवश्य अभाव होता है ।
पर, पुद्गलोंसे भिन्न ऐसा कोई जीवद्रव्य न रहनेसे, जीवका अवश्य अभाव होता है ।
भावार्थ : — जैसे वर्णादिक भाव पुद्गलद्रव्यके साथ तादात्म्यस्वरूप हैं उसी प्रकार जीवके साथ भी तादात्म्यस्वरूप हों तो जीव-पुद्गलमें कुछ भी भेद न रहे और ऐसा होनेसे जीवका अभाव ही हो जाये यह महादोष आता है ।।६२।।
अब, ‘मात्र संसार-अवस्थामें ही जीवका वर्णादिके साथ तादात्म्य है इस अभिप्रायमें भी यही दोष आता है सो कहते हैं : —
वर्णादि हैं संसारी जीवके योंहि मत तुझ होय जो,
संसारस्थित सब जीवगण पाये तदा रूपित्वको ।।६३।।
संसारस्थित सब जीवगण पाये तदा रूपित्वको ।।६३।।
इस रीत पुद्गल वो हि जीव, हे मूढ़मति ! समचिह्नसे,
अरु मोक्षप्राप्त हुआ भि पुद्गलद्रव्य जीव बने अरे ! ।।६४।।
अरु मोक्षप्राप्त हुआ भि पुद्गलद्रव्य जीव बने अरे ! ।।६४।।