यस्य तु संसारावस्थायां जीवस्य वर्णादितादात्म्यमस्तीत्यभिनिवेशस्तस्य तदानीं स जीवो रूपित्वमवश्यमवाप्नोति । रूपित्वं च शेषद्रव्यासाधारणं कस्यचिद् द्रव्यस्य लक्षणमस्ति । ततो रूपित्वेन लक्ष्यमाणं यत्किञ्चिद्भवति स जीवो भवति । रूपित्वेन लक्ष्यमाणं पुद्गलद्रव्यमेव भवति । एवं पुद्गलद्रव्यमेव स्वयं जीवो भवति, न पुनरितरः कतरोऽपि । तथा च सति, मोक्षावस्थायामपि नित्यस्वलक्षणलक्षितस्य द्रव्यस्य सर्वास्वप्यवस्थास्वनपायित्वादनादिनिधनत्वेन पुद्गलद्रव्यमेव स्वयं जीवो भवति, न पुनरितरः कतरोऽपि । तथा च सति, तस्यापि पुद्गलेभ्यो भिन्नस्य
गाथार्थ : — [अथ ] अथवा यदि [तव ] तुम्हारा मत यह हो कि — [संसारस्थानां जीवानां ] संसारमें स्थित जीवोंके ही [वर्णादयः ] वर्णादिक (तादात्म्यस्वरूपसे) [भवन्ति ] हैं, [तस्मात् ] तो इस कारणसे [संसारस्थाः जीवाः ] संसारमें स्थित जीव [रूपित्वम् आपन्नाः ] रूपित्वको प्राप्त हुये; [एवं ] ऐसा होने पर, [तथालक्षणेन ] वैसा लक्षण (अर्थात् रूपित्वलक्षण) तो पुद्गलद्रव्यका होनेसे, [मूढमते ] हे मूढबुद्धि ! [पुद्गलद्रव्यं ] पुद्गलद्रव्य ही [जीवः ] जीव कहलाया [च ] और (मात्र संसार-अवस्थामें ही नहीं किन्तु) [निर्वाणम् उपगतः अपि ] निर्वाण प्राप्त होने पर भी [पुद्गलः ] पुद्गल ही [जीवत्वं ] जीवत्वको [प्राप्तः ] प्राप्त हुआ !
टीका : — फि र जिसका यह अभिप्राय है कि — संसार-अवस्थामें जीवका वर्णादिभावोंके साथ तादात्म्यसम्बन्ध है, उसके मतमें संसार-अवस्थाके समय वह जीव अवश्य रूपित्वको प्राप्त होता है; और रूपित्व तो किसी द्रव्यका, शेष द्रव्योंसे असाधारण ऐसा लक्षण है । इसलिये रूपित्व(लक्षण)से लक्षित (लक्ष्यरूप होनेवाला) जो कुछ हो वही जीव है । रूपित्वसे लक्षित तो पुद्गलद्रव्य ही है । इसप्रकार पुद्गलद्रव्य ही स्वयं जीव है, किन्तु उसके अतिरिक्त दूसरा कोई जीव नहीं है । ऐसा होने पर, मोक्ष-अवस्थामें भी पुद्गलद्रव्य ही स्वयं जीव (सिद्ध होता) है, किन्तु उसके अतिरिक्त अन्य कोई जीव (सिद्ध होता) नहीं; क्योंकि सदा अपने स्वलक्षणसे लक्षित ऐसा द्रव्य सभी अवस्थाओंमें हानि अथवा ह्रासको न प्राप्त होनेसे अनादि-अनन्त होता है । ऐसा होनेसे, उसके मतमें भी (संसार-अवस्थामें ही जीवका वर्णादिके साथ तादात्य माननेवालेके मतमें भी), पुद्गलोंसे भिन्न ऐसा कोई जीवद्रव्य न रहनेसे, जीवका अवश्य अभाव होता है ।