जीवद्रव्यस्याभावाद्भवत्येव जीवाभावः ।
एवमेतत् स्थितं यद्वर्णादयो भावा न जीव इति —
एक्कं च दोण्णि तिण्णि य चत्तारि य पंच इंदिया जीवा ।
बादरपज्जत्तिदरा पयडीओ णामकम्मस्स ।।६५।।
एदाहि य णिव्वत्ता जीवट्ठाणा उ करणभूदाहिं ।
पयडीहिं पोग्गलमइहिं ताहिं कहं भण्णदे जीवो ।।६६।।
एकं वा द्वे त्रीणि च चत्वारि च पञ्चेन्द्रियाणि जीवाः ।
बादरपर्याप्तेतराः प्रकृतयो नामकर्मणः ।।६५।।
एताभिश्च निर्वृत्तानि जीवस्थानानि करणभूताभिः ।
प्रकृतिभिः पुद्गलमयीभिस्ताभिः कथं भण्यते जीवः ।।६६।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
जीव-अजीव अधिकार
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तादात्म्यसम्बन्ध है तो जीव मूर्तिक हुआ; और मूर्तिकत्व तो पुद्गलद्रव्यका लक्षण है; इसलिये
पुद्गलद्रव्य ही जीवद्रव्य सिद्ध हुआ, उसके अतिरिक्त कोई चैतन्यरूप जीवद्रव्य नहीं रहा । और
मोक्ष होने पर भी उन पुद्गलोंका ही मोक्ष हुआ; इसलिये मोक्षमें भी पुद्गल ही जीव ठहरे, अन्य
कोई चैतन्यरूप जीव नहीं रहा । इसप्रकार संसार तथा मोक्षमें पुद्गलसे भिन्न ऐसा कोई चैतन्यरूप
जीवद्रव्य न रहनेसे जीवका ही अभाव हो गया । इसलिये मात्र संसार-अवस्थामें ही वर्णादिभाव
जीवके हैं ऐसा माननेसे भी जीवका अभाव ही होता है ।।६३-६४।।
इसप्रकार यह सिद्ध हुआ कि वर्णादिक भाव जीव नहीं हैं, यह अब कहते हैं : —
जीव एक-दो-त्रय-चार-पञ्चेन्द्रिय, बादर, सूक्ष्म हैं,
पर्याप्त-अनपर्याप्त जीव जु नामकर्मकी प्रकृति हैं ।।६५।।
जो प्रकृति यह पुद्गलमयी वह करणरूप बने अरे,
उससे रचित जीवस्थान जो हैं, जीव क्यों हि कहाय वे ? ।।६६।।
गाथार्थ : — [एकं वा ] एकेन्द्रिय, [द्वे ] द्वीन्द्रिय, [त्रीणि च ] त्रीन्द्रिय, [चत्वारि च ]
चतुरिन्द्रिय, [पञ्चेन्द्रियाणि ] पंचेन्द्रिय, [बादरपर्याप्तेतराः ] बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्त
[जीवाः ] जीव — यह [नामकर्मणः ] नामकर्मकी [प्रकृतयः ] प्रकृतियाँ हैं; [एताभिः च ] इन