एतदपि स्थितमेव यद्रागादयो भावा न जीवा इति —
मोहणकम्मस्सुदया दु वण्णिया जे इमे गुणट्ठाणा ।
ते कह हवंति जीवा जे णिच्चमचेदणा उत्ता ।।६८।।
मोहनकर्मण उदयात्तु वर्णितानि यानीमानि गुणस्थानानि ।
तानि कथं भवन्ति जीवा यानि नित्यमचेतनान्युक्तानि ।।६८।।
मिथ्यादृष्टयादीनि गुणस्थानानि हि पौद्गलिकमोहकर्मप्रकृतिविपाकपूर्वकत्वे सति,
नित्यमचेतनत्वात्, कारणानुविधायीनि कार्याणीति कृत्वा, यवपूर्वका यवा यवा एवेति न्यायेन,
पुद्गल एव, न तु जीवः । गुणस्थानानां नित्यमचेतनत्वं चागमाच्चैतन्यस्वभावव्याप्तस्यात्मनो-
कहानजैनशास्त्रमाला ]
जीव-अजीव अधिकार
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भावार्थ : — घीसे भरे हुए घड़ेको व्यवहारसे ‘घीका घड़ा’ कहा जाता है तथापि निश्चयसे
घड़ा घी-स्वरूप नहीं है; घी घी-स्वरूप है, घड़ा मिट्टी-स्वरूप है; इसीप्रकार वर्ण, पर्याप्ति, इन्द्रियाँ
इत्यादिके साथ एकक्षेत्रावगाहरूप सम्बन्धवाले जीवको सूत्रमें व्यवहारसे ‘पंचेन्द्रिय जीव, पर्याप्त
जीव, बादर जीव, देव जीव, मनुष्य जीव’ इत्यादि कहा गया है तथापि निश्चयसे जीव उस-स्वरूप
नहीं है; वर्ण, पर्याप्ति, इन्द्रियाँ इत्यादि पुद्गलस्वरूप हैं, जीव ज्ञानस्वरूप है ।४०।
अब कहते हैं कि (जैसे वर्णादि भाव जीव नहीं हैं यह सिद्ध हुआ उसीप्रकार) यह भी
सिद्ध हुआ कि रागादि भाव भी जीव नहीं हैं : —
मोहनकरमके उदयसे गुणस्थान जो ये वर्णये,
वे क्यों बने आत्मा, निरन्तर जो अचेतन जिन कहे ? ।।६८।।
गाथार्थ : — [यानि इमानि ] जो यह [गुणस्थानानि ] गुणस्थान हैं वे [मोहनकर्मणः
उदयात् तु ] मोहकर्मके उदयसे होते हैं [वर्णितानि ] ऐसा (सर्वज्ञके आगममें) वर्णन किया गया
है; [तानि ] वे [जीवाः ] जीव [कथं ] कैसे [भवन्ति ] हो सकते हैं [यानि ] कि जो [नित्यं ]
सदा [अचेतनानि ] अचेतन [उक्तानि ] कहे गये हैं ?
टीका : — ये मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थान पौद्गलिक मोहकर्मकी प्रकृतिके उदयपूर्वक होते
होनेसे, सदा ही अचेतन होनेसे, कारण जैसे ही कार्य होते हैं ऐसा समझकर (निश्चयकर) जौपूर्वक
होनेवाले जो जौ, वे जौ ही होते हैं इसी न्यायसे, वे पुद्गल ही हैं — जीव नहीं । और गुणस्थानोंका
सदा ही अचेतनत्व तो आगमसे सिद्ध होता है तथा चैतन्यस्वभावसे व्याप्त जो आत्मा उससे
भिन्नपनेसे वे गुणस्थान भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं उपलभ्यमान हैं, इसलिये भी उनका सदा ही
अचेतनत्व सिद्ध होता है ।