यत्किल बादरसूक्ष्मैकेन्द्रियद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियपर्याप्तापर्याप्ता इति शरीरस्य संज्ञाः सूत्रे जीवसंज्ञात्वेनोक्ताः अप्रयोजनार्थः परप्रसिद्धया घृतघटवद्वयवहारः । यथा हि कस्यचिदाजन्म- प्रसिद्धैकघृतकुम्भस्य तदितरकुम्भानभिज्ञस्य प्रबोधनाय योऽयं घृतकुम्भः स मृण्मयो, न घृतमय इति तत्प्रसिद्धया कुम्भे घृतकुम्भव्यवहारः, तथास्याज्ञानिनो लोकस्यासंसारप्रसिद्धाशुद्धजीवस्य शुद्धजीवानभिज्ञस्य प्रबोधनाय योऽयं वर्णादिमान् जीवः स ज्ञानमयो, न वर्णादिमय इति तत्प्रसिद्धया जीवे वर्णादिमद्वयवहारः ।
[सूत्रे ] सूत्रमें [व्यवहारतः ] व्यवहारसे [उक्ताः ] कही हैं ।
टीका : — बादर, सूक्ष्म, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, अपर्याप्त — इन शरीरकी संज्ञाओंको (नामोंको) सूत्रमें जीवसंज्ञारूपसे कहा है, वह परकी प्रसिद्धिके कारण, ‘घीके घड़े’ की भाँति व्यवहार है — कि जो व्यवहार अप्रयोजनार्थ है (अर्थात् उसमें प्रयोजनभूत वस्तु नहीं है) । इसी बातको स्पष्ट कहते हैं : —
जैसे किसी पुरुषको जन्मसे लेकर मात्र ‘घीका घड़ा’ ही प्रसिद्ध (ज्ञात) हो, उसके अतिरिक्त वह दूसरे घड़ेको न जानता हो, उसे समझानेके लिये ‘‘जो यह ‘घीका घड़ा’ है सो मिट्टीमय है, घीमय नहीं’’ इसप्रकार (समझानेवालेके द्वारा) घड़ेमें ‘घीका घड़े’का व्यवहार किया जाता है, क्योंकि उस पुरुषको ‘घीका घड़ा’ ही प्रसिद्ध (ज्ञात) है; इसीप्रकार इस अज्ञानी लोकको अनादि संसारसे लेकर ‘अशुद्ध जीव’ ही प्रसिद्ध (ज्ञात) है, वह शुद्ध जीवको नहीं जानता, उसे समझानेके लिये ( — शुद्ध जीवका ज्ञान करानेके लिये) ‘‘जो यह ‘वर्णादिमान जीव’ है सो ज्ञानमय है , वर्णादिमय नहीं ’’ इसप्रकार (सूत्रमें) जीवमें वर्णादि-मानपनेका व्यवहार किया गया है, क्योंकि उस अज्ञानी लोकको ‘वर्णादिमान् जीव’ ही प्रसिद्ध (ज्ञात) हैं ।।६७।।
श्लोकार्थ : — [चेत् ] यदि [घृतकुम्भाभिधाने अपि ] ‘घीका घड़ा’ ऐसा कहने पर भी [कुम्भः घृतमयः न ] घड़ा है वह घीमय नहीं है ( — मिट्टीमय ही है), [वर्णादिमत्-जीव-जल्पने अपि ] तो इसीप्रकार ‘वर्णादिमान् जीव’ ऐसा कहने पर भी [जीवः न तन्मयः ] जीव है वह वर्णादिमय नहीं है (-ज्ञानघन ही है) ।