रुक्मेण निर्वृत्तमिहासिकोशं
पश्यन्ति रुक्मं न कथंचनासिम् ।।३८।।
(उपजाति)
वर्णादिसामग्रयमिदं विदन्तु
निर्माणमेकस्य हि पुद्गलस्य ।
ततोऽस्त्विदं पुद्गल एव नात्मा
यतः स विज्ञानघनस्ततोऽन्यः ।।३९।।
शेषमन्यद्वयवहारमात्रम् —
पज्जत्तापज्जत्ता जे सुहुमा बादरा य जे चेव ।
देहस्स जीवसण्णा सुत्ते ववहारदो उत्ता ।।६७।।
पर्याप्तापर्याप्ता ये सूक्ष्मा बादराश्च ये चैव ।
देहस्य जीवसंज्ञाः सूत्रे व्यवहारतः उक्ताः ।।६७।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
जीव-अजीव अधिकार
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स्वर्ण ही देखते हैं, (उसे) [कथंचन ] किसीप्रकारसे [न असिम् ] तलवार नहीं देखते ।
भावार्थ : — वर्णादि पुद्गल-रचित हैं, इसलिये वे पुद्गल ही हैं, जीव नहीं ।३८।
अब दूसरा कलश कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — अहो ज्ञानी जनों ! [इदं वर्णादिसामग्रयम् ] ये वर्णादिकसे लेकर
गुणस्थानपर्यंत भाव हैं उन समस्तको [एकस्य पुद्गलस्य हि निर्माणम् ] एक पुद्गलकी रचना
[विदन्तु ] जानो; [ततः ] इसलिये [इदं ] यह भाव [पुद्गलः एव अस्तु ] पुद्गल ही हों, [न
आत्मा ] आत्मा न हों; [यतः ] क्योंकि [सः विज्ञानघनः ] आत्मा तो विज्ञानघन है, ज्ञानका पुंज
है, [ततः ] इसलिये [अन्यः ] वह इन वर्णादिक भावोंसे अन्य ही है ।३९।
अब, यह कहते हैं कि ज्ञानघन आत्माके अतिरिक्त जो कुछ है उसे जीव कहना सो सब
व्यवहार मात्र है : —
पर्याप्त अनपर्याप्त, जो हैं सूक्ष्म अरु बादर सभी,
व्यवहारसे कही जीवसंज्ञा देहको शास्त्रन महीं ।।६७।।
गाथार्थ : — [ये ] जो [पर्याप्तापर्याप्ताः ] पर्याप्त, अपर्याप्त, [सूक्ष्माः बादराः च ] सूक्ष्म