ज्ञानी जनोऽनुभवति स्वयमुल्लसन्तम् ।
मोहस्तु तत्कथमहो बत नानटीति ।।४३।।
वर्णादिमान्नटति पुद्गल एव नान्यः ।
चैतन्यधातुमयमूर्तिरय च जीवः ।।४४।।
अधर्म, आकाश और काल — ये चार द्रव्य अमूर्त होनेसे, अमूर्तत्व जीवमें व्यापता है वैसे ही चार अजीव द्रव्योंमें भी व्यापता है; इसप्रकार अतिव्याप्ति दोष आता है । इसलिये अमूर्तत्वका आश्रय लेनेसे भी जीवके यथार्थ स्वरूपका ग्रहण नहीं होता ।
चैतन्यलक्षण सर्व जीवोंमें व्यापता होनेसे अव्याप्तिदोषसे रहित है, और जीवके अतिरिक्त किसी अन्य द्रव्यमें व्यापता न होनेसे अतिव्याप्तिदोषसे रहित है; और वह प्रगट है; इसलिये उसीका आश्रय ग्रहण करनेसे जीवके यथार्थ स्वरूपका ग्रहण हो सकता है ।४२।
अब, ‘जब कि ऐसे लक्षणसे जीव प्रगट है तब भी अज्ञानी जनोंको उसका अज्ञान क्यों रहता है ? — इसप्रकार आचार्यदेव आश्चर्य तथा खेद प्रगट करते हैं : —
श्लोकार्थ : — [इति लक्षणतः ] यों पूर्वोक्त भिन्न लक्षणके कारण [जीवात् अजीवम् विभिन्नं ] जीवसे अजीव भिन्न है [स्वयम् उल्लसन्तम् ] उसे (अजीवको) अपने आप ही (-स्वतन्त्रपने, जीवसे भिन्नपने) विलसित हुआ — परिणमित होता हुआ [ज्ञानी जनः ] ज्ञानीजन [अनुभवति ] अनुभव करते हैं, [तत् ] तथापि [अज्ञानिनः ] अज्ञानीको [निरवधि-प्रविजृम्भितः अयं मोहः तु ] अमर्यादरूपसे फै ला हुआ यह मोह (अर्थात् स्व-परके एकत्वकी भ्रान्ति) [कथम् नानटीति ] क्यों नाचता है — [अहो बत ] यह हमें महा आश्चर्य और खेद है ! ४३।
अब पुनः मोहका प्रतिषेध करते हुए कहते हैं कि ‘यदि मोह नाचता है तो नाचो ? तथापि ऐसा ही है’ : —