(मन्दाक्रान्ता)
इत्थं ज्ञानक्रकचकलनापाटनं नाटयित्वा
जीवाजीवौ स्फु टविघटनं नैव यावत्प्रयातः ।
विश्वं व्याप्य प्रसभविकसद्वयक्तचिन्मात्रशक्त्या
ज्ञातृद्रव्यं स्वयमतिरसात्तावदुच्चैश्चकाशे ।।४५।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
जीव-अजीव अधिकार
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अविवेकके नाटकमें अथवा नाचमें [वर्णादिमान् पुद्गलः एव नटति ] वर्णादिमान पुद्गल ही नाचता
है, [न अन्यः ] अन्य कोई नहीं; (अभेद ज्ञानमें पुद्गल ही अनेक प्रकारका दिखाई देता है, जीव
तो अनेक प्रकारका नहीं है;) [च ] और [अयं जीवः ] यह जीव तो [रागादि-पुद्गल-विकार-
विरुद्ध-शुद्ध-चैतन्यधातुमय-मूर्तिः ] रागादिक पुद्गल-विकारोंसे विलक्षण, शुद्ध चैतन्यधातुमय
मूर्ति है ।
भावार्थ : — रागादिक चिद्विकारोंको (-चैतन्यविकारोंको) देखकर ऐसा भ्रम नहीं करना
कि ये भी चैतन्य ही हैं, क्योंकि चैतन्यकी सर्वअवस्थाओंमें व्याप्त हों तो चैतन्यके कहलायें । रागादि
विकार सर्व अवस्थाओंमें व्याप्त नहीं होते — मोक्षअवस्थामें उनका अभाव है । और उनका अनुभव
भी आकुलतामय दुःखरूप है । इसलिये वे चेतन नहीं, जड़ हैं । चैतन्यका अनुभव निराकुल है,
वही जीवका स्वभाव है ऐसा जानना ।४४।
अब, भेदज्ञानकी प्रवृत्तिके द्वारा यह ज्ञाताद्रव्य स्वयं प्रगट होता है इसप्रकार कलशमें महिमा
प्रगट करके अधिकार पूर्ण करते हैं : —
श्लोकार्थ : — [इत्थं ] इसप्रकार [ज्ञान-क्रकच-कलना-पाटनं ] ज्ञानरूपी करवतका जो
बारम्बार अभ्यास है उसे [नाटयित्वा ] नचाकर [यावत् ] जहाँ [जीवाजीवौ ] जीव और अजीव
दोनाें [स्फु ट-विघटनं न एव प्रयातः ] प्रगटरूपसे अलग नहीं हुए, [तावत् ] वहाँ तो [ज्ञातृद्रव्य ]
ज्ञाताद्रव्य, [प्रसभ-विकसत्-व्यक्त -चिन्मात्रशक्त्या ] अत्यन्त विकासरूप होती हुई अपनी प्रगट
चिन्मात्रशक्तिसे [विश्वं व्याप्य ] विश्वको व्याप्त करके, [स्वयम् ] अपने आप ही [अतिरसात् ]
अति वेगसे [उच्चैः ] उग्रतया अर्थात् आत्यन्तिकरूपसे [चकाशे ] प्रकाशित हो उठा ।
भावार्थ : — इस कलशका आशय दो प्रकारसे है : —
उपरोक्त ज्ञानका अभ्यास करते करते जहाँ जीव और अजीव दोनों स्पष्ट भिन्न समझमें आये
कि तत्काल ही आत्माका निर्विकल्प अनुभव हुआ — सम्यग्दर्शन हुआ । (सम्यग्दृष्टि आत्मा
श्रुतज्ञानसे विश्वके समस्त भावोंको संक्षेपसे अथवा विस्तारसे जानता है और निश्चयसे विश्वको प्रत्यक्ष
जाननेका उसका स्वभाव है; इसलिये यह कहा कि वह विश्वको जानता है ।) एक आशय तो
इसप्रकार है ।