इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ जीवाजीवप्ररूपकः प्रथमोऽङ्कः ।।
दूसरा आशय इसप्रकारसे है : — जीव-अजीवका अनादिकालीन संयोग केवल अलग होनेसे पूर्व अर्थात् जीवका मोक्ष होनेसे पूर्व, भेदज्ञानके भाते-भाते अमुक दशा होने पर निर्विकल्प धारा जमीं — जिसमें केवल आत्माका अनुभव रहा; और वह श्रेणि अत्यन्त वेगसे आगे बढ़ते बढ़ते केवलज्ञान प्रगट हुआ । और फि र अघातियाकर्मोंका नाश होने पर जीवद्रव्य अजीवसे केवल भिन्न हुआ । जीव-अजीवके भिन्न होनेकी यह रीति है ।४५।
टीका : — इसप्रकार जीव और अजीव अलग अलग होकर (रङ्गभूमिमेंसे) बाहर निकल गये ।
भावार्थ : — समयसारकी इस ‘आत्मख्याति’ नामक टीकाके प्रारम्भमें पहले रङ्गभूमिस्थल कहकर उसके बाद टीकाकार आचार्यने ऐसा कहा था कि नृत्यके अखाड़ेमें जीव-अजीव दोनों एक होकर प्रवेश करते हैं और दोनोंने एकत्वका स्वाँग रचा है । वहाँ, भेदज्ञानी सम्यग्दृष्टि पुरुषने सम्यग्ज्ञानसे उन जीव-अजीव दोनोंकी उनके लक्षणभेदसे परीक्षा करके दोनोंको पृथक् जाना, इसलिये स्वाँग पूरा हुआ और दोनों अलग अलग होकर अखाड़ेसे बाहर निकल गये । इसप्रकार अलङ्कारपूर्वक वर्णन किया है ।
सम्यक् भेदविज्ञान भये बुध भिन्न गहे निजभाव सुदावैं;
श्री गुरुके उपदेश सुनै रु भले दिन पाय अज्ञान गमावैं,
ते जगमाँहि महन्त कहाय वसैं शिव जाय सुखी नित थावैं ।
इसप्रकार श्री समयसारकी (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमकी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामक टीकामें जीव-अजीवका प्ररूपक पहला अङ्क समाप्त हुआ ।