Samaysar (Hindi).

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इति जीवाजीवौ पृथग्भूत्वा निष्क्रान्तौ
इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ जीवाजीवप्ररूपकः
प्रथमोऽङ्कः ।।
१२८समयसार
दूसरा आशय इसप्रकारसे है :जीव-अजीवका अनादिकालीन संयोग केवल अलग
होनेसे पूर्व अर्थात् जीवका मोक्ष होनेसे पूर्व, भेदज्ञानके भाते-भाते अमुक दशा होने पर निर्विकल्प
धारा जमीं
जिसमें केवल आत्माका अनुभव रहा; और वह श्रेणि अत्यन्त वेगसे आगे बढ़ते बढ़ते
केवलज्ञान प्रगट हुआ और फि र अघातियाकर्मोंका नाश होने पर जीवद्रव्य अजीवसे केवल भिन्न
हुआ जीव-अजीवके भिन्न होनेकी यह रीति है ।४५।
टीका :इसप्रकार जीव और अजीव अलग अलग होकर (रङ्गभूमिमेंसे) बाहर निकल
गये
भावार्थ :समयसारकी इस ‘आत्मख्याति’ नामक टीकाके प्रारम्भमें पहले रङ्गभूमिस्थल
कहकर उसके बाद टीकाकार आचार्यने ऐसा कहा था कि नृत्यके अखाड़ेमें जीव-अजीव दोनों
एक होकर प्रवेश करते हैं और दोनोंने एकत्वका स्वाँग रचा है
वहाँ, भेदज्ञानी सम्यग्दृष्टि पुरुषने
सम्यग्ज्ञानसे उन जीव-अजीव दोनोंकी उनके लक्षणभेदसे परीक्षा करके दोनोंको पृथक् जाना,
इसलिये स्वाँग पूरा हुआ और दोनों अलग अलग होकर अखाड़ेसे बाहर निकल गये
इसप्रकार
अलङ्कारपूर्वक वर्णन किया है
जीव-अजीव अनादि संयोग मिलै लखि मूढ़ न आतम पावैं,
सम्यक् भेदविज्ञान भये बुध भिन्न गहे निजभाव सुदावैं;
श्री गुरुके उपदेश सुनै रु भले दिन पाय अज्ञान गमावैं,
ते जगमाँहि महन्त कहाय वसैं शिव जाय सुखी नित थावैं
इसप्रकार श्री समयसारकी (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार
परमागमकी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामक टीकामें जीव-अजीवका प्ररूपक
पहला अङ्क समाप्त हुआ