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शिलालेख भी अनेक हैं। इस प्रकार यह निर्णीत है कि सनातन जैन (दिगम्बर) संप्रदायमें
कलिकालसर्वज्ञ भगवान् कुंदकुंदाचार्यका स्थान अजोड़ है।
भगवान कुन्दकुन्दाचार्यके रचे हुए अनेक शास्त्र हैं; उसमेंसे थोड़े अभी विद्यमान हैं।
त्रिलोकनाथ सर्वज्ञदेवके मुखसे प्रवाहित श्रुतामृतकी सरितामेंसे जो अमृत-भाजन भर लिये गये थे,
वे अमृतभाजन वर्तमानमें भी अनेक आत्मार्थियोंको आत्म-जीवन अर्पण करते हैं। उनके
पंचास्तिकायसंग्रह, प्रवचनसार और समयसार नामके तीन उत्तमोत्तम शास्त्र ‘प्राभृतत्रय’ कहलाते हैं।
इन तीन परमागमोंमें हजारों शास्त्रोंका सार आ जाता है। इन तीन परमागमोंमें भगवान श्री
कुन्दकुन्दाचार्यके पश्चात् लिखे गये अनेक ग्रन्थोंके बीज निहित हैं ऐसा सूक्ष्म दृष्टिसे अभ्यास करने
पर मालूम होता है। पंचास्तिकायसंग्रहमें छह द्रव्योंका और नौ तत्त्वोंका स्वरूप संक्षेपमें कहा है।
प्रवचनसारको ज्ञान, ज्ञेय और चरणानुयोगसूचक चूलिका — इस प्रकार तीन अधिकारोंमें विभाजित
किया है। समयसारमें नव तत्त्वोंका शुद्धनयकी दृष्टिसे कथन है।
श्री समयसार अलौकिक शास्त्र है। आचार्यभगवान्ने इस जगतके जीवों पर परम करुणा
करके इस शास्त्रकी रचना की है। उसमें मौक्षमार्गका यथार्थ स्वरूप जैसा है वैसा कहा गया
है। अनन्त कालसे परिभ्रमण करते हुए जीवोंको जो कुछ भी समझना बाकी रह गया है, वह
इस परमागममें समझाया गया है। परम कृपालु आचार्यभगवान् इस शास्त्रका प्रारम्भ करते हुए स्वयं
ही कहते हैं : — ‘कामभोगबंधकी कथा सबने सुनी है, परिचय किया है, अनुभव किया है, लेकिन
परसे भिन्न एकत्वकी प्राप्ति ही केवल दुर्लभ है। उस एकत्वकी — परसे भिन्न आत्माकी — बात
❃वन्द्यो विभुर्भ्भुवि न कै रिह कौण्डकुन्दः । कु न्द-प्रभा-प्रणयि-कीर्ति-विभूषिताशः ।
यश्चारु-चारण-कराम्बुजचञ्चरीक -श्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम् ।।
[चन्द्रगिरि पर्वतका शिलालेख ]
अर्थ : — कुन्दपुष्पकी प्रभाको धारण करनेवाली जिनकी कीर्तिके द्वारा दिशाएँ विभूषित हुई हैं, जो
चारणोंके — चारणऋद्धिधारी महामुनियोंके — सुन्दर हस्तकमलोंके भ्रमर थे और जिन पवित्रात्माने भरतक्षेत्रमें श्रुतकी
प्रतिष्ठा की है, वे विभु कुन्दकुन्द इस पृथ्वी पर किससे बन्द्य नहीं हैं ?
.......................................कोण्डकु न्दो यतीन्द्रः ।।
रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्तर्बाह्येपि संव्यञ्जयितुं यतीशः ।
रजःपदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरङ्गुलं सः ।।
[विंध्यगिरि – शिलालेख ]
अर्थ : — यतीश्वर (श्री कुन्दकुन्दस्वामी) रजःस्थानको — भूमितलको – छोड़कर चार अंगुल ऊ पर
आकाशमें चलते थे, उससे मैं यह समझता हूँ कि, वे अन्तरङ्ग तथा बहिरङ्ग रजसे (अपना) अत्यन्त अस्पृष्टत्व
व्यक्त करते थे ( — वे अन्तरङ्गमें रागादि मलसे और बाह्यमें धूलसे अस्पृष्ट थे) ।
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