मैं इस शास्त्रमें समस्त निज वैभवसे (आगम, युक्ति, परम्परा और अनुभवसे) कहूँगा।’ इस
प्रतिज्ञाके अनुसार आचार्यदेव इस शास्त्रमें आत्माका एकत्व — पर-द्रव्यसे और परभावोंसे भिन्नता —
समझाते हैं। वे कहते हैं कि ‘जो आत्माको अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त
देखते हैं वे समग्र जिनशासनको देखते हैं’। और भी वे कहते हैं कि ‘ऐसा नहीं देखनेवाले
अज्ञानीके सर्व भाव अज्ञानमय हैं’। इस प्रकार, जहाँ तक जीवको स्वयंकी शुद्धताका अनुभव नहीं
होता वहाँ तक वह मोक्षमार्गी नहीं है; भले ही वह व्रत, समिति, गुप्ति आदि व्यवहारचारित्र पालता
हो और सर्व आगम भी पढ़ चुका हो। जिसको शुद्ध आत्माका अनुभव वर्तता है वह ही सम्यग्दृष्टि
है। रागादिके उदयमें सम्यक्त्वी जीव कभी एकाकाररूप परिणमता नहीं हैं, परन्तु ऐसा अनुभवता
है कि ‘यह, पुद्गलकर्मरूप रागके विपाकरूप उदय है; वह मेरा भाव नहीं हैं, मैं तो एक
ज्ञायकभाव हूँ।’ यहाँ प्रश्न होगा कि रागादिभाव होने पर भी आत्मा शुद्ध कैसे हो सकता है ?
उत्तरमें स्फ टिकमणिका दृष्टान्त दिया गया है। जैसे स्फ टिकमणि लाल कपड़ेके संयोगसे लाल
दिखाई देता है — होता है तो भी स्फ टिकमणिके स्वभावकी दृष्टिसे देखने पर स्फ टिकमणिने
निर्मलपना छोड़ा नहीं है, उसी प्रकार आत्मा रागादि कर्मोदयके संयोगसे रागी दिखाई देता है —
होता है तो भी शुद्धनयकी दृष्टिसे उसने शुद्धता छोड़ी नहीं है। पर्यायदृष्टिसे अशुद्धता वर्तती होने
पर भी द्रव्यदृष्टिसे शुद्धताका अनुभव हो सकता है। वह अनुभव चतुर्थ गुणस्थान में होता है।
इससे वाचकको समझमें आयेगा कि सम्यग्दर्शन कितना दुष्कर है। सम्यग्दृष्टिका परिणमन ही
पलट गया होता है। वह चाहे जो कार्य करते हुए भी शुद्ध आत्माको ही अनुभवता है। जैसे
लोलुपी मनुष्य नमक और शाकके स्वादका भेद नहीं कर सकता, उसी प्रकार अज्ञानी ज्ञानका
और रागका भेद नहीं कर सकता, जैसे अलुब्ध मनुष्य शाकसे नमकका भिन्न स्वाद ले सकता
है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि रागसे ज्ञानको भिन्न ही अनुभवता है। अब यह प्रश्न होता है कि ऐसा
सम्यग्दर्शन किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है अर्थात् राग और आत्माकी भिन्नता किस प्रकार
अनुभवांशपूर्वक समझमें आये ? आचार्य भगवान् उत्तर देते हैं कि — प्रज्ञारूपी छैनीसे छेदने पर
वे दोंनो भिन्न हो जाते हैं, अर्थात् ज्ञानसे ही — वस्तुके यथार्थ स्वरूप की पहचानसे ही — ,
अनादिकालसे रागद्वेषके साथ एकाकाररूप परिणमता आत्मा भिन्नपने परिणमने लगता है; इससे
अन्य दूसरा कोई उपाय नहीं है। इसलिये प्रत्येक जीवको वस्तुके यथार्थ स्वरूपकी पहिचान
करनेका प्रयत्न सदा कर्तव्य है।
इस शास्त्रका मुख्य उद्देश यथार्थ आत्मस्वरूपकी पहिचान कराना है। इस उद्देशकी पूर्तिके
लिये इस शास्त्रमें आचार्यभगवानने अनेक विषयोंका निरूपण किया है। जीव और पुद्गलके
निमित्त-नैमित्तिकपना होने पर भी दोनोंका अत्यन्त स्वतन्त्र परिणमन, ज्ञानीको राग-द्वेषका अकर्ता-
अभोक्तापना, अज्ञानीको रागद्वेषका कर्ताभोक्तापना, सांख्यदर्शनकी एकान्तिकता, गुणस्थान-
आरोहणमें भावका और द्रव्यका निमित्त-नैमित्तिकपना, विकाररूप परिणमन करनेमें अज्ञानीका
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