बंधस्वरूपपना, मोक्षमार्गमें चरणानुयोग का स्थान — इत्यादि अनेक विषय इस शास्त्रमें प्ररूपण किये
अर्थात् कुन्दकुन्द आचार्य कि जिन्होंने महातत्त्वसे भरे हुये प्राभृतरूपी पर्वतको बुद्धिरूपी सिर पर
उठाकर भव्य जीवोंको समर्पित किया है। वस्तुतः इस कालमें यह शास्त्र मुमुक्षु भव्य जीवोंका
है, कल्पवृक्ष है। चौदह पूर्वका रहस्य इसमें समाया हुवा है। इसकी हरएक गाथा छट्ठे-सातवें
वहाँ वे आठ दिन रहे थे यह बात यथातथ्य है, अक्षरशः सत्य है, प्रमाणसिद्ध है, इसमें लेशमात्र
भी शंकाके लिये स्थान नहीं है। उन परम उपकारी आचार्यभगवान् द्वारा रचित इस समयसारमें
इस शास्त्रमें भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेवकी प्राकृत गाथाओं पर आत्मख्याति नामकी संस्कृत टीका लिखनेवाले (लगभग विक्रमकी दसवीं शताब्दीमें हुए) श्रीमान् अमृतचन्द्राचार्यदेव हैं। जिसप्रकार इस शास्त्रके मूल कर्ता अलौकिक पुरुष हैं उसीप्रकार इसके टीकाकार भी महासमर्थ आचार्य हैं। आत्मख्याति जैसी टीका अभी तक दूसरे कोई जैन ग्रन्थकी नहीं लिखी गई है। उन्होंने पंचास्तिकायसंग्रह तथा प्रवचनसारकी भी टीका लिखी है और तत्त्वार्थसार, पुरुषार्थसिद्धयुपाय आदि स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखे हैं। उनकी एक इस आत्मख्याति टीका पढ़नेवालेको ही उनकी अध्यात्मरसिकता, आत्मानुभव, प्रखर विद्वत्ता, वस्तुस्वरूपको न्यायसे सिद्ध करनेकी उनकी असाधारण शक्ति और उत्तम काव्यशक्तिका पूरा ज्ञान हो जायेगा। अति संक्षेपमें गंभीर रहस्योंको भरदेनेकी उनकी अनोखी शक्ति विद्वानोंको आश्चर्यचकित करती है। उनकी यह दैवी टीका श्रुतकेवलीके वचनोंके समान है। जिसप्रकार मूलशास्त्रकर्ताने समस्त निजवैभवसे इस शास्त्रकी रचना की है उसीप्रकार टीकाकारने भी अत्यन्त उत्साहपूर्वक सर्व निजवैभवसे यह टीका रची है, ऐसा इस टीकाके पढ़नेवालोंको स्वभावतः ही निश्चय हुये बिना नहीं रह सकता। शासनमान्य भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेवने इस कलिकालमें जगद्गुरु तीर्थंकरदेवके जैसा काम किया है और श्री अमृतचन्द्राचार्यदेवने, मानों कि वे कुन्दकुन्दभगवान्के हृदयमें प्रवेश कर गये हों उस प्रकारसे उनके