भावार्थ : — ऐसा ज्ञानस्वरूप आत्मा है वह, परद्रव्य तथा परभावोंके कर्तृत्वरूप अज्ञानको दूर करके, स्वयं प्रगट प्रकाशमान होता है ।४६।
अब, जब तक यह जीव आस्रवके और आत्माके विशेषको (अन्तरको) नहीं जाने तब तक वह अज्ञानी रहता हुआ, आस्रवोंमें स्वयं लीन होता हुआ, कर्मोंका बन्ध करता है यह गाथा द्वारा कहते हैं : —
क्रोधादिमें स्थिति होय है अज्ञानि ऐसे जीवकी ।।६९।।
सर्वज्ञने निश्चय कहा, यों बन्ध होता जीवके ।।७०।।
गाथार्थ : — [जीवः ] जीव [यावत् ] जब तक [आत्मास्रवयोः द्वयोः अपि तु ] आत्मा और आस्रव — इन दोनोंके [विशेषान्तरं ] अन्तर और भेदको [न वेत्ति ] नहीं जानता [तावत् ] तब तक [सः ] वह [अज्ञानी ] अज्ञानी रहता हुआ [क्रोधादिषु ] क्रोधादिक आस्रवोंमें [वर्तते ] प्रवर्तता है; [क्रोधादिषु ] क्रोधादिकमें [वर्तमानस्य तस्य ] प्रवर्तमान उसके [कर्मणः ] कर्मका [सञ्चयः ] संचय [भवति ] होता है । [खलु ] वास्तवमें [एवं ] इसप्रकार [जीवस्य ] जीवके [बन्धः ] कर्मोंका बन्ध [सर्वदर्शिभिः ] सर्वज्ञदेवोंने [भणितः ] कहा है ।