वर्तते, तत्र वर्तमानश्च ज्ञानक्रियायाः स्वभावभूतत्वेनाप्रतिषिद्धत्वाज्जानाति, तथा संयोगसिद्ध-
संबंधयोरप्यात्मक्रोधाद्यास्रवयोः स्वयमज्ञानेन विशेषमजानन् यावद्भेदं न पश्यति तावदशंक मात्मतया
क्रोधादौ वर्तते, तत्र वर्तमानश्च क्रोधादिक्रियाणां परभावभूतत्वात्प्रतिषिद्धत्वेऽपि
स्वभावभूतत्वाध्यासात्क्रुध्यति रज्यते मुह्यति चेति । तदत्र योऽयमात्मा स्वयमज्ञानभवने
ज्ञानभवनमात्रसहजोदासीनावस्थात्यागेन व्याप्रियमाणः प्रतिभाति स कर्ता; यत्तु ज्ञानभवन-
व्याप्रियमाणत्वेभ्यो भिन्नं क्रियमाणत्वेनान्तरुत्प्लवमानं प्रतिभाति क्रोधादि तत्कर्म ।
एवमियमनादिरज्ञानजा कर्तृकर्मप्रवृत्तिः । एवमस्यात्मनः स्वयमज्ञानात्कर्तृकर्मभावेन क्रोधादिषु
वर्तमानस्य तमेव क्रोधादिवृत्तिरूपं परिणामं निमित्तमात्रीकृत्य स्वयमेव परिणममानं पौद्गलिकं कर्म
संचयमुपयाति । एवं जीवपुद्गलयोः परस्परावगाहलक्षणसम्बन्धात्मा बन्धः सिध्येत् । स
१. भवन = होना वह; परिणमना वह; परिणमन ।
२. क्रियमाणरूपसे = किया जाता वह — उसरूपसे
कहानजैनशास्त्रमाला ]
कर्ता-कर्म अधिकार
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विशेष (अन्तर, भिन्न लक्षण) न होनेसे उनके भेदको (पृथक्त्वको) न देखता हुआ, निःशंकतया
ज्ञानमें अपनेपनेसे प्रवर्तता है, और वहाँ (ज्ञानमें अपनेपनेसे) प्रवर्तता हुआ वह, ज्ञानक्रियाका
स्वभावभूत होनेसे निषेध नहीं किया गया है इसलिये, जानता है — जाननेरूपमें परिणमित होता है,
इसीप्रकार जब तक यह आत्मा, जिन्हें संयोगसिद्ध सम्बन्ध है ऐसे आत्मा और क्रोधादि आस्रवोंमें
भी, अपने अज्ञानभावसे, विशेष न जानता हुआ उनके भेदको नहीं देखता तब तक निःशंकतया
क्रोधादिमें अपनेपने से प्रवर्तता है, और वहाँ (क्रोधादिमें अपनेपनेसे) प्रवर्तता हुआ वह, यद्यपि
क्रोधादि क्रियाका परभावभूत होनेसे निषेध किया गया है तथापि वह स्वभावभूत होनेका उसे
अध्यास होनेसे, क्रोधरूप परिणमित होता है, रागरूप परिणमित होता है, मोहरूप परिणमित होता
है । अब यहाँ, जो यह आत्मा अपने अज्ञानभावसे १ज्ञानभवनमात्र सहज उदासीन (ज्ञाताद्रष्टामात्र)
अवस्थाका त्याग करके अज्ञानभवनव्यापाररूप अर्थात् क्रोधादिव्यापाररूप प्रवर्तमान होता हुआ
प्रतिभासित होता है; वह क र्ता है; और ज्ञानभवनव्यापाररूप प्रवर्तनसे भिन्न, जो २क्रियमाणरूपसे
अन्तरङ्गमें उत्पन्न होते हुए प्रतिभासित होते हैं, ऐसे क्रोधादिक वे, (उस कर्ताके) कर्म हैं । इसप्रकार
अनादिकालीन अज्ञानसे होनेवाली यह (आत्माकी) कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है । इसप्रकार अपने
अज्ञानके कारण कर्ताकर्मभावसे क्रोधादिमें प्रवर्तमान इस आत्माके, क्रोधादिकी प्रवृत्तिरूप उसी
परिणामको निमित्तमात्र करके स्वयं अपने भावसे ही परिणमित होनेवाला पौद्गलिक कर्म इकट्ठा
होता है । इसप्रकार जीव और पुद्गलका, परस्पर अवगाह जिसका लक्षण है ऐसे सम्बन्धरूप बन्ध
सिद्ध होता है । अनेकात्मक होने पर भी (अनादि) एक प्रवाहरूप होनेसे जिसमें इतरेतराश्रय दोष