इह किल स्वभावमात्रं वस्तु, स्वस्य भवनं तु स्वभावः । तेन ज्ञानस्य भवनं खल्वात्मा, दूर हो गया है ऐसा वह बन्ध, कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिका निमित्त जो अज्ञान उसका निमित्त है ।
भावार्थ : — यह आत्मा, जैसे अपने ज्ञानस्वभावरूप परिणमित होता है उसीप्रकार जब तक क्रोधादिरूप भी परिणमित होता है, ज्ञानमें और क्रोधादिमें भेद नहीं जानता, तब तक उसके कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है; क्रोधादिरूप परिणमित होता हुआ वह स्वयं कर्ता है और क्रोधादि उसका कर्म है । और अनादि अज्ञानसे तो कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है, कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिसे बन्ध है और उस बन्धके निमित्तसे अज्ञान है; इसप्रकार अनादि सन्तान (प्रवाह) है, इसलिये उसमें इतरेतराश्रयदोष भी नहीं आता ।
इसप्रकार जब तक आत्मा क्रोधादि कर्मका कर्ता होकर परिणमित होता है तब तक कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है और तब तक कर्मका बन्ध होता है ।।६९-७०।।
अब प्रश्न करता है कि इस कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिका अभाव कब होता है ? इसका उत्तर कहते हैं : —
जाने विशेषान्तर, तदा बन्धन नहीं उसको कहा ।।७१।।
गाथार्थ : — [यदा ] जब [अनेन जीवेन ] यह जीव [आत्मनः ] आत्माका [तथा एव च ] और [आस्रवाणां ] आस्रवोंके [विशेषान्तरं ] अन्तर और भेदको [ज्ञातं भवति ] जानता है [तदा तु ] तब [तस्य ] उसे [बन्धः न ] बन्ध नहीं होता ।
टीका : — इस जगतमें वस्तु है वह स्वभावमात्र ही है, और ‘स्व’का भवन वह स्व-भाव है (अर्थात् अपना जो होना – परिणमना सो स्वभाव है); इसलिये निश्चयसे ज्ञानका होना – परिणमना