क्रोधादेर्भवनं क्रोधादिः । अथ ज्ञानस्य यद्भवनं तन्न क्रोधादेरपि भवनं, यतो यथा ज्ञानभवने
ज्ञानं भवद्विभाव्यते न तथा क्रोधादिरपि; यत्तु क्रोधादेर्भवनं तन्न ज्ञानस्यापि भवनं, यतो यथा
क्रोधादिभवने क्रोधादयो भवन्तो विभाव्यन्ते न तथा ज्ञानमपि । इत्यात्मनः क्रोधादीनां च न
खल्वेकवस्तुत्वम् । इत्येवमात्मात्मास्रवयोर्विशेषदर्शनेन यदा भेदं जानाति तदास्यानादिरप्यज्ञानजा
कर्तृकर्मप्रवृत्तिर्निवर्तते; तन्निवृत्तावज्ञाननिमित्तं पुद्गलद्रव्यकर्मबन्धोऽपि निवर्तते । तथा सति
ज्ञानमात्रादेव बन्धनिरोधः सिध्येत् ।
कथं ज्ञानमात्रादेव बन्धनिरोध इति चेत् —
णादूण आसवाणं असुचित्तं च विवरीयभावं च ।
दुक्खस्स कारणं ति य तदो णियत्तिं कुणदि जीवो ।।७२।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
कर्ता-कर्म अधिकार
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सो आत्मा है और क्रोधादिकका होना – परिणमना सो क्रोधादि है । तथा ज्ञानका जो होना – परिणमना
है सो क्रोधादिका भी होना – परिणमना नहीं है, क्योंकि ज्ञानके होनेमें (-परिणमनेमें) जैसे ज्ञान होता
हुआ मालूम पड़ता है उसीप्रकार क्रोधादिक भी होते हुए मालूम नहीं पड़ते; और क्रोधादिका जो
होना – परिणमना वह ज्ञानका भी होना – परिणमना नहीं है, क्योंकि क्रोधादिके होनेमें (-परिणमनेमें)
जैसे क्रोधादिक होते हुए मालूम पड़ते हैं वैसे ज्ञान भी होता हुआ मालूम नहीं पड़ता । इसप्रकार
आत्माके और क्रोधादिके निश्चयसे एकवस्तुत्व नहीं है । इसप्रकार आत्मा और आस्रवोंका विशेष
( – अन्तर) देखनेसे जब यह आत्मा उनका भेद (भिन्नता) जानता है तब इस आत्माके अनादि
होने पर भी अज्ञानसे उत्पन्न हुई ऐसी (परमें) कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति निवृत्त होती है; उसकी निवृत्ति
होने पर पौद्गलिक द्रव्यकर्मका बन्ध — जो कि अज्ञानका निमित्त है वह — भी निवृत्त होता है ।
ऐसा होने पर, ज्ञानमात्रसे ही बन्धका निरोध सिद्ध होता है ।
भावार्थ : — क्रोधादिक और ज्ञान भिन्न-भिन्न वस्तुऐं हैं; न तो ज्ञानमें क्रोधादि है और न क्रोधादिमें
ज्ञान है । ऐसा उनका भेदज्ञान हो तब उनके एकत्वस्वरूपका अज्ञान नाश होता है और अज्ञानके नाश
हो जानेसे कर्मका बन्ध भी नहीं होता । इसप्रकार ज्ञानसे ही बन्धका निरोध होता है ।।७१।।
अब पूछता है कि ज्ञानमात्रसे ही बन्धका निरोध कैसे होता है ? उसका उत्तर कहते
हैं : —
अशुचिपना, विपरीतता ये आस्रवोंके जानके,
अरु दुःखकारण जानके, इनसे निवर्तन जीव करे ।।७२।।