ज्ञात्वा आस्रवाणामशुचित्वं च विपरीतभावं च ।
दुःखस्य कारणानीति च ततो निवृत्तिं करोति जीवः ।।७२।।
जले जम्बालवत्कलुषत्वेनोपलभ्यमानत्वादशुचयः खल्वास्रवाः, भगवानात्मा तु नित्यमेवाति-
निर्मलचिन्मात्रत्वेनोपलम्भकत्वादत्यन्तं शुचिरेव । जडस्वभावत्वे सति परचेत्यत्वादन्यस्वभावाः
खल्वास्रवाः, भगवानात्मा तु नित्यमेव विज्ञानघनस्वभावत्वे सति स्वयं चेतकत्वादनन्यस्वभाव एव ।
आकुलत्वोत्पादकत्वाद्दुःखस्य कारणानि खल्वास्रवाः, भगवानात्मा तु नित्यमेवानाकुलत्व-
स्वभावेनाकार्यकारणत्वाद्दुःखस्याकारणमेव । इत्येवं विशेषदर्शनेन यदैवायमात्मात्मास्रवयोर्भेदं
जानाति तदैव क्रोधादिभ्य आस्रवेभ्यो निवर्तते, तेभ्योऽनिवर्तमानस्य पारमार्थिकतद्भेदज्ञाना-
सिद्धेः। ततः क्रोधाद्यास्रवनिवृत्त्यविनाभाविनो ज्ञानमात्रादेवाज्ञानजस्य पौद्गलिकस्य कर्मणो
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
गाथार्थ : — [आस्रवाणाम् ] आस्रवोंकी [अशुचित्वं च ] अशुचिता और [विपरीतभावं
च ] विपरीतता [च ] तथा [दुःखस्य कारणानि इति ] वे दुःखके कारण हैं ऐसा [ज्ञात्वा ] जानकर
[जीवः ] जीव [ततः निवृत्तिं ] उनसे निवृत्ति [करोति ] करता है ।
टीका : — जलमें सेवाल (काई) है सो मल या मैल है; उस सेवालकी भाँति आस्रव
मलरूप या मैलरूप अनुभवमें आते हैं, इसलिये वे अशुचि हैं ( – अपवित्र हैं); और भगवान् आत्मा
तो सदा ही अतिनिर्मल चैतन्यमात्रस्वभावरूपसे ज्ञायक है, इसलिये अत्यन्त शुचि ही है ( — पवित्र
ही है; उज्ज्वल ही है) । आस्रवोंके जड़स्वभावत्व होनेसे वे दूसरेके द्वारा जानने योग्य हैं ( – क्योंकि
जो जड़ हो वह अपनेको तथा परको नहीं जानता, उसे दूसरा ही जानता है – ) इसलिये वे चैतन्यसे
अन्य स्वभाववाले हैं; और भगवान आत्मा तो, अपनेको सदा ही विज्ञानघनस्वभावपना होनेसे, स्वयं
ही चेतक ( – ज्ञाता) है ( – स्वको और परको जानता है – ) इसलिये वह चैतन्यसे अनन्य
स्वभाववाला ही है (अर्थात् चैतन्यसे अन्य स्वभाववाला नहीं है) । आस्रव आकुलताके उत्पन्न
करनेवाले हैं, इसलिये दुःखके कारण हैं; और भगवान आत्मा तो, सदा ही निराकुलता-स्वभावके
कारण किसीका कार्य तथा किसीका कारण न होनेसे, दुःखका अकारण ही है (अर्थात् दुःखका
कारण नहीं है) । इसप्रकार विशेष ( – अन्तर)को देखकर जब यह आत्मा, आत्मा और आस्रवोंके
भेदको जानता है उसी समय क्रोधादि आस्रवोंसे निवृत्त होता है, क्योंकि उनसे जो निर्वृत्त नहीं होता
उसे आत्मा और आस्रवोंके पारमार्थिक (यथार्थ) भेदज्ञानकी सिद्धि ही नहीं हुई । इसलिये
क्रोधादिक आस्रवोंसे निवृत्तिके साथ जो अविनाभावी है ऐसे ज्ञानमात्रसे ही, अज्ञानजन्य पौद्गलिक
कर्मके बन्धका निरोध होता है ।