Samaysar (Hindi).

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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये
ज्ञानी जानन्नपि खलु स्वकपरिणाममनेकविधम् ।।७७।।

यतो यं प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणमात्मपरिणामं कर्म आत्मना स्वयमन्तर्व्यापकेन भूत्वादिमध्यान्तेषु व्याप्य तं गृह्णता तथा परिणमता तथोत्पद्यमानेन च क्रियमाणं जानन्नपि हि ज्ञानी स्वयमन्तर्व्यापको भूत्वा बहिःस्थस्य परद्रव्यस्य परिणामं मृत्तिकाकलशमिवादिमध्यान्तेषु व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते च, ततः प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणामं कर्माकुर्वाणस्य स्वपरिणामं जानतोऽपि ज्ञानिनः पुद्गलेन सह न कर्तृकर्मभावः

पुद्गलकर्मफलं जानतो जीवस्य सह पुद्गलेन कर्तृकर्मभावः किं भवति किं न भवतीति चेत्

गाथार्थ :[ज्ञानी ] ज्ञानी [अनेकविधम् ] अनेक प्रकारके [स्वकपरिणामम् ] अपने परिणामको [जानन् अपि ] जानता हुआ भी [ खलु ] निश्चयसे [परद्रव्यपर्याये ] परद्रव्यकी पर्यायमें [न अपि परिणमति ] परिणमित नहीं होता, [ न गृह्णाति ] उसे ग्रहण नहीं करता और [न उत्पद्यते ] उसरूप उत्पन्न नहीं होता

टीका :प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा, व्याप्यलक्षणवाला आत्माके परिणामस्वरूप जो कर्म (कर्ताका कार्य), उसमें आत्मा स्वयं अन्तर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर, उसे ग्रहण करता हुआ, उस-रूप परिणमन करता हुआ और उस-रूप उत्पन्न होता हुआ, उस आत्मपरिणामको करता है; इसप्रकार आत्माके द्वारा किये जानेवाले आत्मपरिणामको ज्ञानी जानता हुआ भी, जैसे मिट्टी स्वयं घड़ेमें अन्तर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर, घड़ेको ग्रहण करती है, घडे़के रूपमें परिणमित होती है और घड़ेके रूपमें उत्पन्न होती है उसीप्रकार, ज्ञानी स्वयं बाह्यस्थित ऐसे परद्रव्यके परिणाममें अन्तर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर, उसे ग्रहण नहीं करता, उस-रूप परिणमित नहीं होता और उस-रूप उत्पन्न नहीं होता; इसलिये यद्यपि ज्ञानी अपने परिणामको जानता है तथापि, प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा जो व्याप्यलक्षणवाला परद्रव्यपरिणामस्वरूप कर्म है, उसे न करनेवाले ज्ञानीको पुद्गलके साथ कर्ताकर्मभाव नहीं है

भावार्थ :जैसा ७६वीं गाथामें कहा है तदनुसार यहाँ भी जान लेना वहाँ ‘पुद्गलकर्मको जानता हुआ ज्ञानी’ ऐसा कहा था उसके स्थान पर यहाँ ‘अपने परिणामको जानता हुआ ज्ञानी’ ऐसा कहा हैइतना अन्तर है ।।७७।।

अब प्रश्न करता है कि पुद्गलकर्मके फलको जाननेवाले ऐसे जीवको पुद्गलके साथ कर्ताकर्मभाव (कर्ताकर्मपना) है या नहीं ? उसका उत्तर कहते हैं :