निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणामं कर्माकुर्वाणस्य, पुद्गलकर्म जानतोऽपि ज्ञानिनः पुद्गलेन
सह न कर्तृकर्मभावः ।
स्वपरिणामं जानतो जीवस्य सह पुद्गलेन कर्तृकर्मभावः किं भवति किं न भवतीति
चेत् —
ण वि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए ।
णाणी जाणंतो वि हु सगपरिणामं अणेयविहं ।।७७।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
कर्ता-कर्म अधिकार
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व्याप्यलक्षणवाला परद्रव्यपरिणामस्वरूप कर्म है, उसे न करनेवाले ज्ञानीको पुद्गलके साथ
कर्ताकर्मभाव नहीं है ।
भावार्थ : — जीव पुद्गलकर्मको जानता है तथापि उसे पुद्गलके साथ कर्ताकर्मपना नहीं है ।
सामान्यतया कर्ताका कर्म तीन प्रकारका कहा जाता है — निर्वर्त्य, विकार्य और प्राप्य ।
कर्ताके द्वारा, जो पहले न हो ऐसा नवीन कुछ उत्पन्न किया जाये सो कर्ताका निर्वर्त्य कर्म है ।
कर्ताके द्वारा, पदार्थमें विकार – परिवर्तन करके जो कुछ किया जाये वह कर्ताका विकार्य कर्म है ।
कर्ता, जो नया उत्पन्न नहीं करता तथा विकार करके भी नहीं करता, मात्र जिसे प्राप्त करता है
वह कर्ताका प्राप्य कर्म है ।
जीव पुद्गलकर्मको नवीन उत्पन्न नहीं कर सकता, क्योंकि चेतन जड़को कैसे उत्पन्न कर
सकता है ? इसलिये पुद्गलकर्म जीवका निर्वर्त्य कर्म नहीं है । जीव पुद्गलमें विकार करके उसे
पुद्गलकर्मरूप परिणमन नहीं करा सकता, क्योंकि चेतन जड़को कैसे परिणमित कर सकता है ?
इसलिये पुद्गलकर्म जीवका विकार्य कर्म भी नहीं है । परमार्थसे जीव पुद्गलको ग्रहण नहीं कर
सकता, क्योंकि अमूर्तिक पदार्थ मूर्तिकको कैसे ग्रहण कर सकता है ? इसलिये पुद्गलकर्म
जीवका प्राप्य कर्म भी नहीं है । इसप्रकार पुद्गलकर्म जीवका कर्म नहीं है और जीव उसका कर्ता
नहीं है । जीवका स्वभाव ज्ञाता है, इसलिये ज्ञानरूप परिणमन करता हुआ स्वयं पुद्गलकर्मको
जानता है; इसलिये पुद्गलकर्मको जाननेवाले ऐसे जीवका परके साथ कर्ताकर्मभाव कैसे हो सकता
है ? नहीं हो सकता ।।७६।।
अब प्रश्न करता है कि अपने परिणामको जाननेवाले ऐसे जीवको पुद्गलके साथ
कर्ताकर्मभाव (कर्ताकर्मपना) है या नहीं ? उसका उत्तर कहते हैं : —
बहुभाँति निज परिणाम सब, ज्ञानी पुरुष जाना करे,
परद्रव्यपर्यायों न प्रणमे, नहिं ग्रहे, नहिं ऊपजे ।।७७।।