पुद्गलकर्म जानतो जीवस्य सह पुद्गलेन कर्तृकर्मभावः किं भवति किं न भवतीति चेत् —
ण वि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए ।
णाणी जाणंतो वि हु पोग्गलकम्मं अणेयविहं ।।७६।।
नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये ।
ज्ञानी जानन्नपि खलु पुद्गलकर्मानेकविधम् ।।७६।।
यतो यं प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणं पुद्गलपरिणामं कर्म पुद्गलद्रव्येण
स्वयमन्तर्व्यापकेन भूत्वादिमध्यान्तेषु व्याप्य तं गृह्णता तथा परिणमता तथोत्पद्यमानेन च क्रियमाणं
जानन्नपि हि ज्ञानी स्वयमन्तर्व्यापको भूत्वा बहिःस्थस्य परद्रव्यस्य परिणामं मृत्तिकाकलश-
मिवादिमध्यान्तेषु व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते च, ततः प्राप्यं विकार्यं
१४४
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
अब यह प्रश्न करता है कि पुद्गलकर्मको जाननेवाले जीवके पुद्गलके साथ कर्ताकर्मभाव
है या नहीं ? उसका उत्तर कहते हैं : —
बहुभाँति पुद्गलकर्म सब, ज्ञानी पुरुष जाना करे,
परद्रव्यपर्यायों न प्रणमे, नहिं ग्रहे, नहिं ऊपजे ।।७६।।
गाथार्थ : — [ज्ञानी ] ज्ञानी [अनेकविधम् ] अनेक प्रकारके [पुद्गलकर्म ] पुद्गलकर्मको
[जानन् अपि ] जानता हुआ भी [ खलु ] निश्चयसे [परद्रव्यपर्याये ] परद्रव्यकी पर्यायमें [न अपि
परिणमति ] परिणमित नहीं होता, [ न गृह्णाति ] उसे ग्रहण नहीं करता और [न उत्पद्यते ] उस –
रूप उत्पन्न नहीं होता ।
टीका : — प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा, व्याप्यलक्षणवाला पुद्गलके परिणामस्वरूप
कर्म (कर्ताका कार्य), उसमें पुद्गलद्रव्य स्वयं अन्तर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त
होकर, उसे ग्रहण करता हुआ, उस-रूप परिणमन करता हुआ उस-रूप उत्पन्न होता हुआ, उस
पुद्गलपरिणामको करता है; इसप्रकार पुद्गलद्रव्यसे किये जानेवाले पुद्गलपरिणामको ज्ञानी जानता
हुआ भी, जैसे मिट्टी स्वयं घड़ेमें अन्तर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर, घड़ेको
ग्रहण करती है, घड़के रूपमें परिणमित होती है और घड़ेके रूपमें उत्पन्न होती है उसीप्रकार, ज्ञानी
स्वयं बाह्यस्थित (बाहर रहनेवाले) परद्रव्यके परिणाममें अन्तर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अन्तमें
व्याप्त होकर, उसे ग्रहण नहीं करता, उस-रूप परिणमित नहीं होता और उस-रूप उत्पन्न नहीं होता;
इसलिये, यद्यपि ज्ञानी पुद्गलकर्मको जानता है तथापि, प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा जो