व्याप्यव्यापकभावसम्भवमृते का कर्तृकर्मस्थितिः ।
ज्ञानीभूय तदा स एष लसितः कर्तृत्वशून्यः पुमान् ।।४९।।
आत्माके ज्ञेयज्ञायकसम्बन्ध व्यवहारमात्र होने पर भी पुद्गलपरिणाम जिसका निमित्त है ऐसा
ज्ञान ही ज्ञाताका व्याप्य है । (इसलिये वह ज्ञान ही ज्ञाताका कर्म है ।)।।७५।।
श्लोकार्थ : — [व्याप्यव्यापकता तदात्मनि भवेत् ] व्याप्यव्यापकता तत्स्वरूपमें ही होती है, [अतदात्मनि अपि न एव ] अतत्स्वरूपमें नहीं ही होती । और [व्याप्यव्यापकभावसम्भवम् ऋते ] व्याप्यव्यापकभावके सम्भव बिना [कर्तृकर्मस्थितिः का ] कर्ताकर्मकी स्थिति कैसी ? अर्थात् कर्ताकर्मकी स्थिति नहीं ही होती । [इति उद्दाम-विवेक- घस्मर-महोभारेण ] ऐसे प्रबल विवेकरूप, और सबको ग्रासीभूत करनेके स्वभाववाले ज्ञानप्रकाशके भारसे [तमः भिन्दन् ] अज्ञानांधकारको भेदता हुआ, [सः एषः पुमान् ] यह आत्मा [ज्ञानीभूय ] ज्ञानस्वरूप होकर, [तदा ] उस समय [कर्तृत्वशून्यः लसितः ] कर्तृत्वरहित हुआ शोभित होता है ।
भावार्थ : — जो सर्व अवस्थाओंमें व्याप्त होता है सो तो व्यापक है और कोई एक अवस्थाविशेष वह, (उस व्यापकका) व्याप्य है । इसप्रकार द्रव्य तो व्यापक है और पर्याय व्याप्य है । द्रव्य-पर्याय अभेदरूप ही है । जो द्रव्यका आत्मा, स्वरूप अथवा सत्त्व है वही पर्यायका आत्मा, स्वरूप अथवा सत्त्व है । ऐसा होनेसे द्रव्य पर्यायमें व्याप्त होता है और पर्याय द्रव्यके द्वारा व्याप्त हो जाती है । ऐसी व्याप्यव्यापकता तत्स्वरूपमें ही (अभिन्न सत्तावाले पदार्थमें ही) होती है; अतत्स्वरूपमें (जिनकी सत्ता – सत्त्व भिन्न-भिन्न है ऐसे पदार्थोंमें) नहीं ही होती । जहाँ व्याप्यव्यापकभाव होता है वहीं कर्ताकर्मभाव होता है; व्याप्यव्यापकभावके बिना कर्ताकर्मभाव नहीं होता । जो ऐसा जानता है वह पुद्गल और आत्माके कर्ताकर्मभाव नहीं है ऐसा जानता है । ऐसा जानने पर वह ज्ञानी होता है, कर्ताकर्मभावसे रहित होता है और ज्ञाताद्रष्टा — जगतका साक्षीभूत — होता है ।४९।