सिद्धौ जीव एव स्वयमन्तर्व्यापको भूत्वादिमध्यान्तेषु ससंसारनिःसंसारावस्थे व्याप्य ससंसारं
निःसंसारं वात्मानं कुर्वन्नात्मानमेकमेव कुर्वन् प्रतिभातु, मा पुनरन्यत्, तथायमेव च भाव्यभावक-
भावाभावात् परभावस्य परेणानुभवितुमशक्यत्वात्ससंसारं निःसंसारं वात्मानमनुभवन्नात्मानमेक-
मेवानुभवन् प्रतिभातु, मा पुनरन्यत्
करता हुआ प्रतिभासित होता है, परन्तु अन्यको अनुभव करता हुआ प्रतिभासित नहीं होता;
इसीप्रकार ससंसार और निःसंसार अवस्थाओंको पुद्गलकर्मके विपाकका
असिद्धि है इसलिये, जीव ही स्वयं अन्तर्व्यापक होकर ससंसार अथवा निःसंसार अवस्थामें
आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर ससंसार अथवा निःसंसार ऐसा अपनेको करता हुआ, अपनेको
एकको ही करता हुआ प्रतिभासित हो, परन्तु अन्यको करता हुआ प्रतिभासित न हो; और फि र
उसीप्रकार यही जीव, भाव्यभावकभावके अभावके कारण परभावका परके द्वारा अनुभव अशक्य
है इसलिये, ससंसार अथवा निःसंसाररूप अपनेको अनुभव करता हुआ, अपनेको एकको ही
अनुभव करता हुआ प्रतिभासित हो, परन्तु अन्यको अनुभव करता हुआ प्रतिभासित न हो