कहानजैनशास्त्रमाला ]
कर्ता-कर्म अधिकार
१५३
पुद्गलकर्मविपाकसम्भवासम्भवनिमित्तयोरपि पुद्गलकर्मजीवयोर्व्याप्यव्यापकभावाभावात्कर्तृकर्मत्वा-
सिद्धौ जीव एव स्वयमन्तर्व्यापको भूत्वादिमध्यान्तेषु ससंसारनिःसंसारावस्थे व्याप्य ससंसारं
निःसंसारं वात्मानं कुर्वन्नात्मानमेकमेव कुर्वन् प्रतिभातु, मा पुनरन्यत्, तथायमेव च भाव्यभावक-
भावाभावात् परभावस्य परेणानुभवितुमशक्यत्वात्ससंसारं निःसंसारं वात्मानमनुभवन्नात्मानमेक-
मेवानुभवन् प्रतिभातु, मा पुनरन्यत्
सिद्धौ जीव एव स्वयमन्तर्व्यापको भूत्वादिमध्यान्तेषु ससंसारनिःसंसारावस्थे व्याप्य ससंसारं
निःसंसारं वात्मानं कुर्वन्नात्मानमेकमेव कुर्वन् प्रतिभातु, मा पुनरन्यत्, तथायमेव च भाव्यभावक-
भावाभावात् परभावस्य परेणानुभवितुमशक्यत्वात्ससंसारं निःसंसारं वात्मानमनुभवन्नात्मानमेक-
मेवानुभवन् प्रतिभातु, मा पुनरन्यत्
।
अथ व्यवहारं दर्शयति —
ववहारस्स दु आदा पोग्गलकम्मं करेदि णेयविहं ।
तं चेव पुणो वेयइ पोग्गलकम्मं अणेयविहं ।।८४।।
होनेसे, अपनेको उत्तरङ्ग अथवा निस्तरङ्गरूप अनुभवन करता हुआ, स्वयं एकको ही अनुभव
करता हुआ प्रतिभासित होता है, परन्तु अन्यको अनुभव करता हुआ प्रतिभासित नहीं होता;
इसीप्रकार ससंसार और निःसंसार अवस्थाओंको पुद्गलकर्मके विपाकका १सम्भव और असम्भव
करता हुआ प्रतिभासित होता है, परन्तु अन्यको अनुभव करता हुआ प्रतिभासित नहीं होता;
इसीप्रकार ससंसार और निःसंसार अवस्थाओंको पुद्गलकर्मके विपाकका १सम्भव और असम्भव
निमित्त होने पर भी पुद्गलकर्म और जीवको व्याप्यव्यापकभावका अभाव होनेसे कर्ताकर्मपनेकी
असिद्धि है इसलिये, जीव ही स्वयं अन्तर्व्यापक होकर ससंसार अथवा निःसंसार अवस्थामें
आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर ससंसार अथवा निःसंसार ऐसा अपनेको करता हुआ, अपनेको
एकको ही करता हुआ प्रतिभासित हो, परन्तु अन्यको करता हुआ प्रतिभासित न हो; और फि र
उसीप्रकार यही जीव, भाव्यभावकभावके अभावके कारण परभावका परके द्वारा अनुभव अशक्य
है इसलिये, ससंसार अथवा निःसंसाररूप अपनेको अनुभव करता हुआ, अपनेको एकको ही
अनुभव करता हुआ प्रतिभासित हो, परन्तु अन्यको अनुभव करता हुआ प्रतिभासित न हो
असिद्धि है इसलिये, जीव ही स्वयं अन्तर्व्यापक होकर ससंसार अथवा निःसंसार अवस्थामें
आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर ससंसार अथवा निःसंसार ऐसा अपनेको करता हुआ, अपनेको
एकको ही करता हुआ प्रतिभासित हो, परन्तु अन्यको करता हुआ प्रतिभासित न हो; और फि र
उसीप्रकार यही जीव, भाव्यभावकभावके अभावके कारण परभावका परके द्वारा अनुभव अशक्य
है इसलिये, ससंसार अथवा निःसंसाररूप अपनेको अनुभव करता हुआ, अपनेको एकको ही
अनुभव करता हुआ प्रतिभासित हो, परन्तु अन्यको अनुभव करता हुआ प्रतिभासित न हो
।
भावार्थ : — आत्माको परद्रव्य – पुद्गलकर्म – के निमित्तसे ससंसार-निःसंसार अवस्था है । आत्मा उस अवस्थारूपसे स्वयं ही परिणमित होता है । इसलिये वह अपना ही कर्ता-भोक्ता है; पुद्गलकर्मका कर्ता-भोक्ता तो कदापि नहीं है ।।८३।।
अब व्यवहार बतलाते हैं : —
आत्मा करे बहुभाँति पुद्गलकर्म — मत व्यवहारका,
अरु वो हि पुद्गलकर्म, आत्मा नेकविधमय भोगता ।।८४।।
१. सम्भव = होना; उत्पत्ति ।
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