यथोत्तरंगनिस्तरंगावस्थयोः समीरसंचरणासंचरणनिमित्तयोरपि समीरपारावारयोर्व्याप्य- व्यापकभावाभावात्कर्तृकर्मत्वासिद्धौ पारावार एव स्वयमन्तर्व्यापको भूत्वादिमध्यान्तेषूत्तरंग- निस्तरंगावस्थे व्याप्योत्तरंग निस्तरंग त्वात्मानं कुर्वन्नात्मानमेकमेव कुर्वन् प्रतिभाति, न पुनरन्यत्, यथा स एव च भाव्यभावकभावाभावात्परभावस्य परेणानुभवितुमशक्यत्वादुत्तरंग निस्तरंग त्वात्मानमनुभवन्नात्मानमेकमेवानुभवन् प्रतिभाति, न पुनरन्यत्, तथा ससंसारनिःसंसारावस्थयोः
इसलिये यह सिद्ध हुआ कि जीवको अपने ही परिणामोंके साथ कर्ताकर्मभाव और भोक्ताभोग्यभाव (भोक्ताभोग्यपना) है ऐसा अब कहते हैं : —
आत्मा करे निजको हि यह मन्तव्य निश्चय नयहिका, अरु भोगता निजको हि आत्मा, शिष्य यों तू जानना ।।८३।।
गाथार्थ : — [निश्चयनयस्य ] निश्चयनयका [एवम् ] ऐसा मत है कि [आत्मा ] आत्मा [आत्मानम् एव हि ] अपनेको ही [करोति ] करता है [तु पुनः ] और फि र [आत्मा ] आत्मा [तं च एव आत्मानम् ] अपनेको ही [वेदयते ] भोगता है ऐसा हे शिष्य ! तू [जानीहि ] जान ।
टीका : — जैसे उत्तरङ्ग१ और निस्तरङ्ग२ अवस्थाओंको हवाका चलना और न चलना निमित्त होने पर भी हवा और समुद्रको व्याप्यव्यापकभावका अभाव होनेसे कर्ताकर्मपनेकी असिद्धि है इसलिये, समुद्र ही स्वयं अन्तर्व्यापक होकर उत्तरङ्ग अथवा निस्तरङ्ग अवस्थामें आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर उत्तरङ्ग अथवा निस्तरङ्ग ऐसा अपनेको करता हुआ स्वयं एकको ही करता हुआ प्रतिभासित होता है, परन्तु अन्यको करता हुआ प्रतिभासित नहीं होता; और फि र जैसे वही समुद्र, भाव्यभावकभावके अभावके कारण परभावका परके द्वारा अनुभव अशक्य १. उत्तरङ्ग = जिसमें तरंगें उठती हैं ऐसा; तरङ्गवाला । २. निस्तरङ्ग = जिसमें तरंगें विलय हो गई हैं ऐसा; बिना तरङ्गोंका ।