Samaysar (Hindi). Gatha: 83.

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ततः स्थितमेतज्जीवस्य स्वपरिणामैरेव सह कर्तृकर्मभावो भोक्तृभोग्यभावश्च
णिच्छयणयस्स एवं आदा अप्पाणमेव हि करेदि
वेदयदि पुणो तं चेव जाण अत्ता दु अत्ताणं ।।८३।।
निश्चयनयस्यैवमात्मात्मानमेव हि करोति
वेदयते पुनस्तं चैव जानीहि आत्मा त्वात्मानम् ।।८३।।
यथोत्तरंगनिस्तरंगावस्थयोः समीरसंचरणासंचरणनिमित्तयोरपि समीरपारावारयोर्व्याप्य-
व्यापकभावाभावात्कर्तृकर्मत्वासिद्धौ पारावार एव स्वयमन्तर्व्यापको भूत्वादिमध्यान्तेषूत्तरंग-
निस्तरंगावस्थे व्याप्योत्तरंग निस्तरंग त्वात्मानं कुर्वन्नात्मानमेकमेव कुर्वन् प्रतिभाति, न पुनरन्यत्,
यथा स एव च भाव्यभावकभावाभावात्परभावस्य परेणानुभवितुमशक्यत्वादुत्तरंग निस्तरंग
त्वात्मानमनुभवन्नात्मानमेकमेवानुभवन् प्रतिभाति, न पुनरन्यत्, तथा ससंसारनिःसंसारावस्थयोः
१. उत्तरङ्ग = जिसमें तरंगें उठती हैं ऐसा; तरङ्गवाला
२. निस्तरङ्ग = जिसमें तरंगें विलय हो गई हैं ऐसा; बिना तरङ्गोंका
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
इसलिये यह सिद्ध हुआ कि जीवको अपने ही परिणामोंके साथ कर्ताकर्मभाव और
भोक्ताभोग्यभाव (भोक्ताभोग्यपना) है ऐसा अब कहते हैं :
आत्मा करे निजको हि यह मन्तव्य निश्चय नयहिका,
अरु भोगता निजको हि आत्मा, शिष्य यों तू जानना
।।८३।।
गाथार्थ :[निश्चयनयस्य ] निश्चयनयका [एवम् ] ऐसा मत है कि [आत्मा ] आत्मा
[आत्मानम् एव हि ] अपनेको ही [करोति ] करता है [तु पुनः ] और फि र [आत्मा ] आत्मा
[तं च एव आत्मानम् ] अपनेको ही [वेदयते ] भोगता है ऐसा हे शिष्य ! तू [जानीहि ] जान
टीका :जैसे उत्तरङ्ग और निस्तरङ्ग अवस्थाओंको हवाका चलना और न चलना
निमित्त होने पर भी हवा और समुद्रको व्याप्यव्यापकभावका अभाव होनेसे कर्ताकर्मपनेकी
असिद्धि है इसलिये, समुद्र ही स्वयं अन्तर्व्यापक होकर उत्तरङ्ग अथवा निस्तरङ्ग अवस्थामें
आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर उत्तरङ्ग अथवा निस्तरङ्ग ऐसा अपनेको करता हुआ स्वयं एकको
ही करता हुआ प्रतिभासित होता है, परन्तु अन्यको करता हुआ प्रतिभासित नहीं होता; और फि र
जैसे वही समुद्र, भाव्यभावकभावके अभावके कारण परभावका परके द्वारा अनुभव अशक्य