व्याप्यव्यापकभावाभावाज्जीवस्य पुद्गलपरिणामानां पुद्गलकर्मणोऽपि जीवपरिणामानां कर्तृ-
कर्मत्वासिद्धौ निमित्तनैमित्तिकभावमात्रस्याप्रतिषिद्धत्वादितरेतरनिमित्तमात्रीभवनेनैव द्वयोरपि
परिणामः; ततः कारणान्मृत्तिकया कलशस्येव स्वेन भावेन स्वस्य भावस्य करणाज्जीवः स्वभावस्य
कर्ता कदाचित्स्यात्, मृत्तिकया वसनस्येव स्वेन भावेन परभावस्य कर्तुमशक्यत्वात्पुद्गलभावानां तु
कर्ता न कदाचिदपि स्यादिति निश्चयः
[पुद्गलकर्मनिमित्तं ] पुद्गलकर्मके निमित्तसे [परिणमति ] परिणमन करता है
[जीवगुणान् ] जीवके गुणोंको नहीं करता; [तु ] परन्तु [अन्योऽन्यनिमित्तेन ] परस्पर निमित्तसे
[द्वयोः अपि ] दोनोंके [परिणामं ] परिणाम [जानीहि ] जानो
परन्तु [पुद्गलकर्मकृतानां ] पुद्गलकर्मसे किये गये [सर्वभावानाम् ] समस्त भावोंका [कर्ता न ]
कर्ता नहीं है
व्याप्यव्यापकभावका अभाव होनेसे जीवको पुद्गलपरिणामोंके साथ और पुद्गलकर्मको
जीवपरिणामोंके साथ कर्ताकर्मपनेकी असिद्धि होनेसे, मात्र निमित्त-नैमित्तिकभावका निषेध न होनेसे,
अन्योन्य निमित्तमात्र होनेसे ही दोनोंके परिणाम (होते) हैं; इसलिये, जैसे मिट्टी द्वारा घड़ा किया
जाता है उसीप्रकार अपने भावसे अपना भाव किया जाता है इसलिये, जीव अपने भावका कर्ता
कदाचित् है, परन्तु जैसे मिट्टीसे कपड़ा नहीं किया जा सकता उसीप्रकार अपने भावसे परभावका
किया जाना अशक्य है, इसलिए (जीव) पुद्गलभावोंका कर्ता तो कदापि नहीं है यह निश्चय है
नहीं है