इह खलु क्रिया हि तावदखिलापि परिणामलक्षणतया न नाम परिणामतोऽस्ति भिन्ना; परिणामोऽपि परिणामपरिणामिनोरभिन्नवस्तुत्वात्परिणामिनो न भिन्नः । ततो या काचन है; जीव तो पुद्गलकर्मके निमित्तसे होनेवाले अपने रागादिक परिणामोंको भोगता है । परन्तु जीव और पुद्गलका ऐसा निमित्त-नैमित्तिकभाव देखकर अज्ञानीको ऐसा भ्रम होता है कि जीव पुद्गलकर्मको करता है और भोगता है । अनादि अज्ञानके कारण ऐसा अनादिकालसे प्रसिद्ध व्यवहार है ।
परमार्थसे जीव-पुद्गलकी प्रवृत्ति भिन्न होने पर भी, जब तक भेदज्ञान न हो तब तक बाहरसे उनकी प्रवृत्ति एकसी दिखाई देती है । अज्ञानीको जीव-पुद्गलका भेदज्ञान नहीं होता, इसलिये वह ऊ परी दृष्टिसे जैसा दिखाई देता है वैसा मान लेता है; इसलिये वह यह मानता है कि जीव पुद्गलकर्मको करता है और भोगता है । श्री गुरु भेदज्ञान कराकर, परमार्थ जीवका स्वरूप बताकर, अज्ञानीके इस प्रतिभासको व्यवहार कहते हैं ।।८४।।
गाथार्थ : — [यदि ] यदि [आत्मा ] आत्मा [इदं ] इस [पुद्गलकर्म ] पुद्गलकर्मको [करोति ] करे [च ] और [तद् एव ] उसीको [वेदयते ] भोगे तो [सः ] वह आत्मा [द्विक्रियाव्यतिरिक्त : ] दो क्रियाओंसे अभिन्न [प्रसजति ] ठहरे ऐसा प्रसंग आता है — [जिनावमतं ] जो कि जिनदेवको सम्मत नहीं है ।
टीका : — पहले तो, जगतमें जो क्रिया है सो सब ही परिणामस्वरूप होनेसे वास्तवमें परिणाममे भिन्न नहीं है ( – परिणाम ही है); परिणाम भी परिणामीसे (द्रव्यसे) भिन्न नहीं है, क्योंकि