अथैनं दूषयति —
जदि पोग्गलकम्ममिणं कुव्वदि तं चेव वेदयदि आदा ।
दोकिरियावदिरित्तो पसज्जदे सो जिणावमदं ।।८५।।
यदि पुद्गलकर्मेदं करोति तच्चैव वेदयते आत्मा ।
द्विक्रियाव्यतिरिक्तः प्रसजति स जिनावमतम् ।।८५।।
इह खलु क्रिया हि तावदखिलापि परिणामलक्षणतया न नाम परिणामतोऽस्ति
भिन्ना; परिणामोऽपि परिणामपरिणामिनोरभिन्नवस्तुत्वात्परिणामिनो न भिन्नः । ततो या काचन
कहानजैनशास्त्रमाला ]
कर्ता-कर्म अधिकार
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है; जीव तो पुद्गलकर्मके निमित्तसे होनेवाले अपने रागादिक परिणामोंको भोगता है । परन्तु जीव
और पुद्गलका ऐसा निमित्त-नैमित्तिकभाव देखकर अज्ञानीको ऐसा भ्रम होता है कि जीव
पुद्गलकर्मको करता है और भोगता है । अनादि अज्ञानके कारण ऐसा अनादिकालसे प्रसिद्ध
व्यवहार है ।
परमार्थसे जीव-पुद्गलकी प्रवृत्ति भिन्न होने पर भी, जब तक भेदज्ञान न हो तब तक
बाहरसे उनकी प्रवृत्ति एकसी दिखाई देती है । अज्ञानीको जीव-पुद्गलका भेदज्ञान नहीं होता,
इसलिये वह ऊ परी दृष्टिसे जैसा दिखाई देता है वैसा मान लेता है; इसलिये वह यह मानता
है कि जीव पुद्गलकर्मको करता है और भोगता है । श्री गुरु भेदज्ञान कराकर, परमार्थ जीवका
स्वरूप बताकर, अज्ञानीके इस प्रतिभासको व्यवहार कहते हैं ।।८४।।
अब इस व्यवहारको दूषण देते हैं : —
पुद्गलकरम जीव जो करे, उनको हि जो जीव भोगवे ।
जिनको असम्मत द्विक्रियासे एकरूप आत्मा हुवे ।।८५।।
गाथार्थ : — [यदि ] यदि [आत्मा ] आत्मा [इदं ] इस [पुद्गलकर्म ] पुद्गलकर्मको
[करोति ] करे [च ] और [तद् एव ] उसीको [वेदयते ] भोगे तो [सः ] वह आत्मा
[द्विक्रियाव्यतिरिक्त : ] दो क्रियाओंसे अभिन्न [प्रसजति ] ठहरे ऐसा प्रसंग आता है — [जिनावमतं ]
जो कि जिनदेवको सम्मत नहीं है ।
टीका : — पहले तो, जगतमें जो क्रिया है सो सब ही परिणामस्वरूप होनेसे वास्तवमें
परिणाममे भिन्न नहीं है ( – परिणाम ही है); परिणाम भी परिणामीसे (द्रव्यसे) भिन्न नहीं है, क्योंकि