यथा व्याप्यव्यापकभावेन स्वपरिणामं करोति भाव्यभावकभावेन तमेवानुभवति च जीवस्तथा
व्याप्यव्यापकभावेन पुद्गलकर्मापि यदि कुर्यात् भाव्यभावकभावेन तदेवानुभवेच्च ततोऽयं
स्वपरसमवेतक्रियाद्वयाव्यतिरिक्ततायां प्रसजन्त्यां स्वपरयोः परस्परविभागप्रत्यस्तमनादनेका-
त्मकमेकमात्मानमनुभवन्मिथ्यादृष्टितया सर्वज्ञावमतः स्यात् ।
परिणाम और परिणामी अभिन्न वस्तु है ( – भिन्न भिन्न दो वस्तु नहीं है) । इसलिये (यह सिद्ध हुआ कि) जो कुछ क्रिया है वह सब ही क्रियावानसे (द्रव्यसे) भिन्न नहीं है । इसप्रकार, वस्तुस्थितिसे ही (वस्तुकी ऐसी ही मर्यादा होनेसे) क्रिया और कर्ताकी अभिन्नता (सदा ही) प्रगट होनेसे, जैसे जीव व्याप्यव्यापकभावसे अपने परिणामको करता है और भाव्यभावकभावसे उसीका अनुभव करता है — भोगता है उसीप्रकार यदि व्याप्यव्यापकभावसे पुद्गलकर्मको भी करे और भाव्यभावकभावसे उसीको भोगे तो वह जीव, अपनी और परकी एकत्रित हुई दो क्रियाओंसे अभिन्नताका प्रसंग आने पर स्व-परका परस्पर विभाग अस्त (नाश) हो जानेसे, अनेकद्रव्यस्वरूप एक आत्माको अनुभव करता हुआ मिथ्यादृष्टिताके कारण सर्वज्ञके मतसे बाहर है ।
भावार्थ : — दो द्रव्योंकी क्रिया भिन्न ही है । जड़की क्रियाको चेतन नहीं करता और चेतनकी क्रियाको जड़ नहीं करता । जो पुरुष एक द्रव्यको दो क्रियायें करता हुआ मानता है वह मिथ्यादृष्टि है, क्योंकि दो द्रव्यकी क्रियाओंको एक द्रव्य करता है ऐसा मानना जिनेन्द्र भगवानका मत नहीं है ।।८५।।
अब पुनः प्रश्न करता है कि दो क्रियाओंका अनुभव करनेवाला मिथ्यादृष्टि कैसा है ? उसका समाधान करते हैं : —