मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादयो हि भावाः ते तु प्रत्येकं मयूरमुकुरन्दवज्जीवाजीवाभ्यां भाव्यमानत्वाज्जीवाजीवौ । तथा हि — यथा नीलहरितपीतादयो भावाः स्वद्रव्यस्वभावत्वेन मयूरेण भाव्यमाना मयूर एव, यथा च नीलहरितपीतादयो भावाः स्वच्छताविकारमात्रेण मुकुरन्देन भाव्यमाना मुकुरन्द एव, तथा मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादयो भावाः स्वद्रव्यस्वभावत्वेनाजीवेन भाव्यमाना अजीव एव, तथैव च मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादयो भावाश्चैतन्यविकारमात्रेण
गाथार्थ : — [पुनः ] और, [मिथ्यात्वं ] जो मिथ्यात्व कहा है वह [द्विविधं ] दो प्रकारका है — [जीवः अजीवः ] एक जीवमिथ्यात्व और एक अजीवमिथ्यात्व; [तथा एव ] और इसीप्रकार [अज्ञानम् ] अज्ञान, [अविरतिः ] अविरति, [योगः ] योग, [मोहः ] मोह तथा [क्रोधाद्याः ] क्रोधादि कषाय — [इमे भावाः ] यह (सर्व) भाव जीव और अजीवके भेदसे दो- दो प्रकारके हैं ।
टीका : — मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि जो भाव हैं वे प्रत्येक, मयूर और दर्पणकी भाँति, अजीव और जीवके द्वारा भाये जाते हैं, इसलिये वे अजीव भी हैं और जीव भी हैं । इसे दृष्टान्तसे समझाते हैं : — जैसे गहरा नीला, हरा, पीला आदि (वर्णरूप) भाव जो कि मोरके अपने स्वभावसे मोरके द्वारा भाये जाते हैं ( – बनते हैं, होते हैं) वे मोर ही हैं और (दर्पणमें प्रतिबिम्बरूपसे दिखाई देनेवाला) गहरा नीला, हरा, पीला इत्यादि भाव जो कि (दर्पणकी) स्वच्छताके विकारमात्रसे दर्पणके द्वारा भाये जाते हैं वे दर्पण ही हैं; इसीप्रकार मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि भाव जो कि अजीवके अपने द्रव्यस्वभावसे अजीवके द्वारा भाये जाते हैं वे अजीव ही हैं और मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि भाव जो कि चैतन्यके विकारमात्रसे जीवके द्वारा ★ गाथा ८६में द्विक्रियावादीको मिथ्यादृष्टि कहा था उसके साथ सम्बन्ध करनेके लिये यहाँ ‘पुनः’ शब्द है ।