Samaysar (Hindi). Kalash: 56.

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(अनुष्टुभ्)
आत्मभावान्करोत्यात्मा परभावान्सदा परः
आत्मैव ह्यात्मनो भावाः परस्य पर एव ते ।।५६।।
१६०
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
श्लोकार्थ :[इह ] इस जगत्में [मोहिनाम् ] मोही (अज्ञानी) जीवोंका ‘[परं अहम्
कुर्वे ] परद्रव्यको मैं करता हूँ’ [इति महाहंकाररूपं तमः ] ऐसा परद्रव्यके कर्तृत्वका महा
अहंकाररूप अज्ञानान्धकार
[ननु उच्चकैः दुर्वारं ] जो अत्यन्त दुर्निवार है वह[आसंसारतः एव
धावति ] अनादि संसारसे चला आ रहा है आचार्य कहते हैं कि[अहो ] अहो !
[भूतार्थपरिग्रहेण ] परमार्थनयका अर्थात् शुद्धद्रव्यार्थिक अभेदनयका ग्रहण करनेसे [यदि ] यदि
[तत् एकवारं विलयं व्रजेत् ] वह एक बार भी नाशको प्राप्त हो [तत् ] तो [ज्ञानघनस्य आत्मनः ]
ज्ञानघन आत्माको [भूयः ] पुनः [बन्धनम् किं भवेत् ] बन्धन कैसे हो सकता है ? (जीव ज्ञानघन
है, इसलिये यथार्थ ज्ञान होनेके बाद ज्ञान कहाँ जा सकता है ? नहीं जाता
और जब ज्ञान नहीं
जाता तब फि र अज्ञानसे बन्ध कैसे हो सकता है ? कभी नहीं होता )
भावार्थ :यहाँ तात्पर्य यह है किअज्ञान तो अनादिसे ही है, परन्तु परमार्थनयके
ग्रहणसे, दर्शनमोहका नाश होकर, एक बार यथार्थ ज्ञान होकर क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न हो तो
पुनः मिथ्यात्व न आये
मिथ्यात्वके न आनेसे मिथ्यात्वका बन्ध भी न हो और मिथ्यात्वके
जानेके बाद संसारका बन्धन कैसे रह सकता है ? नहीं रह सकता अर्थात् मोक्ष ही होता है ऐसा
जानना चाहिये
।५५।
अब पुनः विशेषतापूर्वक कहते हैं :
श्लोकार्थ :[आत्मा ] आत्मा तो [सदा ] सदा [आत्मभावान् ] अपने भावोंको
[करोति ] करता है और [परः ] परद्रव्य [परभावान् ] परके भावोंको करता है; [हि ] क्योंकि
जो [आत्मनः भावाः ] अपने भाव हैं सो तो [आत्मा एव ] आप ही है और जो [परस्य ते ] परके
भाव हैं सो [परः एव ] पर ही है (यह नियम है)
।५३।
(परद्रव्यके कर्ता-कर्मपनेकी मान्यताको अज्ञान कहकर यह कहा है कि जो ऐसा मानता
है सो मिथ्यादृष्टि है; यहाँ आशंका उत्पन्न होती है कियह मिथ्यात्वादि भाव क्या वस्तु हैं ? यदि
उन्हें जीवका परिणाम कहा जाये तो पहले रागादि भावोंको पुद्गलके परिणाम कहे थे उस कथनके
साथ विरोध आता है; और यदि उन्हें पुद्गलके परिणाम कहे जाये तो जिनके साथ जीवको कोई
प्रयोजन नहीं है उनका फल जीव क्यों प्राप्त करे ? इस आशंकाको दूर करनेके लिये अब गाथा
कहते हैं :
)