र्दुर्वारं ननु मोहिनामिह महाहंकाररूपं तमः ।
तत्किं ज्ञानघनस्य बन्धनमहो भूयो भवेदात्मनः ।।५५।।
श्लोकार्थ : — [न उभौ परिणमतः खलु ] दो द्रव्य एक होकर परिणमित नहीं होते, [उभयोः परिणामः न प्रजायेत ] दो द्रव्योंका एक परिणाम नहीं होता और [उभयोः परिणति न स्यात् ] दो द्रव्योंकी एक परिणति – क्रिया नहीं होती; [यत् ] क्योंकि जो [अनेकम् सदा अनेकम् एव ] अनेक द्रव्य हैं सो सदा अनेक ही हैं, वे बदलकर एक नहीं हो जाते ।
भावार्थ : — जो दो वस्तुएँ हैं वे सर्वथा भिन्न ही हैं, प्रदेशभेदवाली ही हैं । दोनों एक होकर परिणमित नहीं होती, एक परिणामको उत्पन्न नहीं करती और उनकी एक क्रिया नहीं होती — ऐसा नियम है । यदि दो द्रव्य एक होकर परिणमित हों तो सर्व द्रव्योंका लोप हो जाये ।५३।
श्लोकार्थ : — [एकस्य हि द्वौ कर्तारौ न स्तः ] एक द्रव्यके दो कर्ता नहीं होते, [च ] और [एकस्य द्वे कर्मणी न ] एक द्रव्यके दो कर्म नहीं होते [च ] तथा [एकस्य द्वे क्रिये न ] एक द्रव्यकी दो क्रियाएँ नहीं होती; [यतः ] क्योंकि [एकम् अनेकं न स्यात् ] एक द्रव्य अनेक द्रव्यरूप नहीं होता ।
भावार्थ : — इसप्रकार उपरोक्त श्लोकोंमें निश्चयनयसे अथवा शुद्धद्रव्यार्थिकनयसे वस्तुस्थितिका नियम कहा है ।५४।
आत्माको अनादिसे परद्रव्यके कर्ताकर्मपनेका अज्ञान है यदि वह परमार्थनयके ग्रहणसे एक बार भी विलयको प्राप्त हो जाये तो फि र न आये, अब ऐसा कहते हैं : —