श्लोकार्थ : — [यः परिणमति स कर्ता ] जो परिणमित होता है सो कर्ता है, [यः परिणामः भवेत् तत् कर्म ] (परिणमित होनेवालेका) जो परिणाम है सो कर्म है [तु ] और [या परिणतिः सा क्रिया ] जो परिणति है सो क्रिया है; [त्रयम् अपि ] य्ाह तीनों ही, [वस्तुतया भिन्नं न ] वस्तुरूपसे भिन्न नहीं हैं ।
भावार्थ : — द्रव्यदृष्टिसे परिणाम और परिणामीका अभेद है और पर्यायदृष्टिसे भेद है । भेददृष्टिसे तो कर्ता, कर्म और क्रिया यह तीन कहे गये हैं, किन्तु यहाँ अभेददृष्टिसे परमार्थ कहा गया है कि कर्ता, कर्म और क्रिया — तीनों ही एक द्रव्यकी अभिन्न अवस्थायें हैं, प्रदेशभेदरूप भिन्न वस्तुएँ नहीं हैं ।५१।
श्लोकार्थ : — [एकः परिणमति सदा ] वस्तु एक ही सदा परिणमित होती है, [एकस्य सदा परिणामः जायते ] एकका ही सदा परिणाम होता है (अर्थात् एक अवस्थासे अन्य अवस्था एककी ही होती है) और [एकस्य परिणतिः स्यात् ] एककी ही परिणति – क्रिया होती है; [यतः ] क्योंकि [अनेकम् अपि एकम् एव ] अनेकरूप होने पर भी एक ही वस्तु है, भेद नहीं है ।
भावार्थ : — एक वस्तुकी अनेक पर्यायें होती हैं; उन्हें परिणाम भी कहा जाता है और अवस्था भी कहा जाता है । वे संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजन आदिसे भिन्न-भिन्न प्रतिभासित होती हैं तथापि एक वस्तु ही है, भिन्न नहीं है; ऐसा ही भेदाभेदस्वरूप वस्तुका स्वभाव है ।५२।