आत्मा ह्यात्मना तथापरिणमनेन यं भावं किल करोति तस्यायं कर्ता स्यात्, साधकवत् । तस्मिन्निमित्ते सति पुद्गलद्रव्यं कर्मत्वेन स्वयमेव परिणमते । तथा हि — यथा साधकः किल तथाविधध्यानभावेनात्मना परिणममानो ध्यानस्य कर्ता स्यात्, तस्मिंस्तु ध्यानभावे सकलसाध्यभावानुकूलतया निमित्तमात्रीभूते सति साधकं कर्तारमन्तरेणापि स्वयमेव बाध्यन्ते विषव्याप्तयो, विडम्ब्यन्ते योषितो, ध्वंस्यन्ते बन्धाः, तथायमज्ञानादात्मा मिथ्यादर्शनादिभावेनात्मना परिणममानो मिथ्यादर्शनादिभावस्य कर्ता स्यात्, तस्मिंस्तु मिथ्यादर्शनादौ भावे स्वानुकूलतया निमित्तमात्रीभूते सत्यात्मानं कर्तारमन्तरेणापि पुद्गलद्रव्यं मोहनीयादिकर्मत्वेन स्वयमेव परिणमते
गाथार्थ : — [आत्मा ] आत्मा [यं भावम् ] जिस भावको [करोति ] करता है [तस्य भावस्य ] उस भावका [सः ] वह [कर्ता ] कर्ता [भवति ] होता है; [तस्मिन् ] उसके कर्ता होने पर [पुद्गलं द्रव्यम् ] पुद्गलद्रव्य [स्वयं ] अपने आप [कर्मत्वं ] कर्मरूप [परिणमते ] परिणमित होता है ।
टीका : — आत्मा स्वयं ही उस प्रकार (उसरूप) परिणमित होनेसे जिस भावको वास्तवमें करता है उसका वह — साधककी (मन्त्र साधनेवालेकी) भाँति — कर्ता होता है; वह (आत्माका भाव) निमित्तभूत होने पर, पुद्गलद्रव्य कर्मरूप स्वयमेव (अपने आप ही) परिणमित होता है । इसी बातको स्पष्टतया समझाते हैं : — जैसे साधक उस प्रकारके ध्यानभावसे स्वयं ही परिणमित होता हुआ ध्यानका कर्ता होता है और वह ध्यानभाव समस्त साध्यभावोंको (साधकके साधनेयोग्य भावोंको) अनुकूल होनेसे निमित्तमात्र होने पर, साधकके कर्ता हुए बिना (सर्पादिकका) व्याप्त विष स्वयमेव उतर जाता है, स्त्रियाँ स्वयमेव विडम्बनाको प्राप्त होती हैं और बन्धन स्वयमेव टूट जाते हैं; इसीप्रकार यह आत्मा अज्ञानके कारण मिथ्यादर्शनादिभावरूप स्वयं ही परिणमित होता हुआ मिथ्यादर्शनादिभावका कर्ता होता है और वह मिथ्यादर्शनादिभाव पुद्गलद्रव्यको (कर्मरूप परिणमित होनेमें) अनुकूल होनेसे निमित्तमात्र होने पर, आत्माके कर्ता हुए बिना पुद्गलद्रव्य मोहनीयादि कर्मरूप स्वयमेव परिणमित होते हैं
भावार्थ : — आत्मा तो अज्ञानरूप परिणमित होता है, किसीके साथ ममत्व करता है, किसीके साथ राग करता है, किसीके साथ द्वेष करता है; उन भावोंका स्वयं कर्ता होता है । उन भावोंके निमित्तमात्र होने पर, पुद्गलद्रव्य स्वयं अपने भावसे ही कर्मरूप परिणमित होता है ।