अज्ञानादेव कर्म प्रभवतीति तात्पर्यमाह —
परमप्पाणं कुव्वं अप्पाणं पि य परं करिंतो सो ।
अण्णाणमओ जीवो कम्माणं कारगो होदि ।।९२।।
परमात्मानं कुर्वन्नात्मानमपि च परं कुर्वन् सः ।
अज्ञानमयो जीवः कर्मणां कारको भवति ।।९२।।
अयं किलाज्ञानेनात्मा परात्मनोः परस्परविशेषानिर्ज्ञाने सति परमात्मानं कुर्वन्नात्मानं
च परं कुर्वन्स्वयमज्ञानमयीभूतः कर्मणां कर्ता प्रतिभाति । तथा हि — तथाविधानुभवसम्पादन-
समर्थायाः रागद्वेषसुखदुःखादिरूपायाः पुद्गलपरिणामावस्थायाः शीतोष्णानुभवसम्पादनसमर्थायाः
शीतोष्णायाः पुद्गलपरिणामावस्थाया इव पुद्गलादभिन्नत्वेनात्मनो नित्यमेवात्यन्तभिन्नायास्त-
न्निमित्ततथाविधानुभवस्य चात्मनोऽभिन्नत्वेन पुद्गलान्नित्यमेवात्यन्तभिन्नस्याज्ञानात्परस्परविशेषा-
निर्ज्ञाने सत्येकत्वाध्यासात् शीतोष्णरूपेणेवात्मना परिणमितुमशक्येन रागद्वेषसुखदुःखादि-
कहानजैनशास्त्रमाला ]
कर्ता-कर्म अधिकार
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परस्पर निमित्तनैमित्तिकभाव मात्र है । कर्ता तो दोनों अपने अपने भावके हैं यह निश्चय है ।।९१।।
अब, यह तात्पर्य कहते हैं कि अज्ञानसे ही कर्म उत्पन्न होता है : —
परको करे निजरूप अरु निज आत्मको भी पर करे ।
अज्ञानमय यह जीव ऐसा कर्मका कारक बने ।।९२।।
गाथार्थ : — [परम् ] जो परको [आत्मानं ] अपनेरूप [कुर्वन् ] करता है [च ] और
[आत्मानम् अपि ] अपनेको भी [परं ] पर [कुर्वन् ] करता है, [सः ] वह [अज्ञानमयः जीवः ]
अज्ञानमय जीव [कर्मणां ] कर्मोंका [कारकः ] कर्ता [भवति ] होता है ।
टीका : — यह आत्मा अज्ञानसे अपना और परका परस्पर भेद (अन्तर) नहीं जानता हो
तब वह परको अपनेरूप और अपनेको पररूप करता हुआ, स्वयं अज्ञानमय होता हुआ, कर्मोंका
कर्ता प्रतिभासित होता है । यह स्पष्टतासे समझाते हैं : — जैसे शीत-उष्णका अनुभव करानेमें समर्थ
ऐसी शीत-उष्ण पुद्गलपरिणामकी अवस्था पुद्गलसे अभिन्नताके कारण आत्मासे सदा ही अत्यन्त
भिन्न है और उसके निमित्तसे होनेवाला उस प्रकारका अनुभव आत्मासे अभिन्नताके कारण पुद्गलसे
सदा ही अत्यन्त भिन्न है, इसीप्रकार ऐसा अनुभव करानेमें समर्थ ऐसी रागद्वेषसुखदुःखादिरूप
पुद्गलपरिणामकी अवस्था पुद्गलसे अभिन्नताके कारण आत्मासे सदा ही अत्यन्त भिन्न है और