रूपेणाज्ञानात्मना परिणममानो ज्ञानस्याज्ञानत्वं प्रकटीकुर्वन्स्वयमज्ञानमयीभूत एषोऽहं रज्ये
इत्यादिविधिना रागादेः कर्मणः कर्ता प्रतिभाति ।
ज्ञानात्तु न कर्म प्रभवतीत्याह —
परमप्पाणमकुव्वं अप्पाणं पि य परं अकुव्वंतो ।
सो णाणमओ जीवो कम्माणमकारगो होदि ।।९३।।
परमात्मानमकुर्वन्नात्मानमपि च परमकुर्वन् ।
स ज्ञानमयो जीवः कर्मणामकारको भवति ।।९३।।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
उसके निमित्तसे होनेवाला उस प्रकारका अनुभव आत्मासे अभिन्नताके कारण पुद्गलसे सदा ही
अत्यन्त भिन्न है । जब आत्मा अज्ञानके कारण उस रागद्वेषसुखदुःखादिका और उसके अनुभवका
परस्पर विशेष नहीं जानता हो तब एकत्वके अध्यासके कारण, शीत-उष्णकी भाँति (अर्थात् जैसे
शीत-उष्णरूपसे आत्माके द्वारा परिणमन करना अशक्य है उसी प्रकार), जिनके रूपमें आत्माके
द्वारा परिणमन करना अशक्य है ऐसे रागद्वेषसुखदुःखादिरूप अज्ञानात्माके द्वारा परिणमित होता हुआ
(अर्थात् परिणमित होना मानता हुआ), ज्ञानका अज्ञानत्व प्रगट करता हुआ, स्वयं अज्ञानमय होता
हुआ, ‘यह मैं रागी हूँ (अर्थात् यह मैं राग करता हूँ)’ इत्यादि विधिसे रागादि कर्मका कर्ता
प्रतिभासित होता है
।
भावार्थ : — रागद्वेषसुखदुःखादि अवस्था पुद्गलकर्मके उदयका स्वाद है; इसलिये वह,
शीत-उष्णताकी भाँति, पुद्गलकर्मसे अभिन्न है और आत्मासे अत्यन्त भिन्न है । अज्ञानके कारण
आत्माको उसका भेदज्ञान न होनेसे यह जानता है कि यह स्वाद मेरा ही है; क्योंकि ज्ञानकी
स्वच्छताके कारण रागद्वेषादिका स्वाद, शीत-उष्णताकी भाँति, ज्ञानमें प्रतिबिम्बित होने पर, मानों
ज्ञान ही रागद्वेष हो गया हो इसप्रकार अज्ञानीको भासित होता है । इसलिये वह यह मानता है
कि ‘मैं रागी हूँ, मैं द्वेषी हूँ, मैं क्रोधी हूँ, मैं मानी हूँ ’ इत्यादि । इसप्रकार अज्ञानी जीव
रागद्वेषादिका कर्ता होता है ।।९२।।
अब यह बतलाते हैं कि ज्ञानसे कर्म उत्पन्न नहीं होता : —
परको नहीं निजरूप अरु निज आत्मको नहिं पर करे ।
यह ज्ञानमय आत्मा अकारक कर्मका ऐसे बने ।।९३।।
गाथार्थ : — [परम् ] जो परको [आत्मानम् ] अपनेरूप [अकुर्वन् ] नहीं करता [च ]