पुछवाने पर उन्होंने मेरेको हर समय बिनासंकोच प्रश्नोंके उत्तर दिये हैं; इसके लिये मैं उनका
अन्तःकरणपूर्वक आभार मानता हूँ। इसके अतिरिक्त भी जिन जिन भाइयोंकी इस अनुवादमें
यह अनुवाद भव्य जीवोंको जिनदेव द्वारा प्ररूपित आत्मशांतिका यथार्थ मार्ग बताये, यह मेरी अन्तरकी भावना है। श्री अमृतचन्द्राचार्यदेवके शब्दोंमें ‘यह शास्त्र आनंदमय विज्ञानघन आत्माको प्रत्यक्ष दिखानेवाला अद्वितीय जगत्चक्षु है’। जो कोई उसके परम गम्भीर और सूक्ष्म भावोंको हृदयङ्गत करेगा उसको वह जगत्चक्षु आत्माका प्रत्यक्ष दर्शन करायेगा। जब तक वे भाव यथार्थ प्रकारसे हृदयङ्गत नहीं होवें तब तक रातदिन वह ही मंथन, वह ही पुरुषार्थ कर्तव्य है। श्री जयसेनाचार्यदेवके शब्दोंमें समयसारके अभ्यास आदिका फल कहकर यह उपोद्घात पूर्ण करता हूँ : — ‘स्वरूपरसिक पुरुषों द्वारा वर्णित इस प्राभृतका जो कोई आदरसे अभ्यास करेगा, श्रवण करेगा, पठन करेगा, प्रसिद्धि करेगा, वह पुरुष अविनाशी स्वरूपमय, अनेक प्रकारकी विचित्रतावाले, केवल एक ज्ञानात्मक भावको प्राप्त करके अग्र पदमें मुक्तिललनामें लीन होगा।’ दीपोत्सव वि० सं० १९९६
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