एष खलु सामान्येनाज्ञानरूपो मिथ्यादर्शनाज्ञानाविरतिरूपस्त्रिविधः सविकारश्चैतन्यपरिणामः परात्मनोरविशेषदर्शनेनाविशेषज्ञानेनाविशेषरत्या च समस्तं भेदमपह्नुत्य भाव्यभावकभावापन्न- योश्चेतनाचेतनयोः सामान्याधिकरण्येनानुभवनात्क्रोधोऽहमित्यात्मनो विकल्पमुत्पादयति; ततोऽय- मात्मा क्रोधोऽहमिति भ्रान्त्या सविकारेण चैतन्यपरिणामेन परिणमन् तस्य सविकारचैतन्य- परिणामरूपस्यात्मभावस्य कर्ता स्यात् । पर, रागादिका कर्ता आत्मा नहीं होता, ज्ञाता ही रहता है ।।९३।।
अब यह प्रश्न करता है कि अज्ञानसे कर्म कैसे उत्पन्न होता है ? इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि : —
गाथार्थ : — [त्रिविधः ] तीन प्रकारका [एषः ] यह [उपयोगः ] उपयोग [अहम् क्रोधः ] ‘मैं क्रोध हूँ’ ऐसा [आत्मविकल्पं ] अपना विकल्प [करोति ] करता है; इसलिये [सः ] आत्मा [तस्य उपयोगस्य ] उस उपयोगरूप [आत्मभावस्य ] अपने भावका [कर्ता ] कर्ता [भवति ] होता है ।
टीका : — वास्तवमें यह सामान्यतया अज्ञानरूप जो मिथ्यादर्शन – अज्ञान-अविरतिरूप तीन प्रकारका सविकार चैतन्यपरिणाम है वह, परके और अपने अविशेष दर्शनसे, अविशेष ज्ञानसे और अविशेष रति (लीनता)से समस्त भेदको छिपाकर, भाव्यभावकभावको प्राप्त चेतन और अचेतनका सामान्य अधिकरणसे ( – मानों उनका एक आधार हो इस प्रकार) अनुभव करनेसे, ‘मैं क्रोध हूँ’ ऐसा अपना विकल्प उत्पन्न करता है; इसलिये ‘मैं क्रोध हूँ’ ऐसी भ्रान्तिके कारण जो सविकार (विकारयुक्त) है ऐसे चैतन्यपरिणामरूप परिणमित होता हुआ यह आत्मा उस सविकार चैतन्यपरिणामरूप अपने भावका कर्ता होता है ।