एवमेव च क्रोधपदपरिवर्तनेन मानमायालोभमोहरागद्वेषकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्र- चक्षुर्घ्राणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि ।
एष खलु सामान्येनाज्ञानरूपो मिथ्यादर्शनाज्ञानाविरतिरूपस्त्रिविधः सविकारश्चैतन्यपरिणामः परस्परमविशेषदर्शनेनाविशेषज्ञानेनाविशेषरत्या च समस्तं भेदमपह्नुत्य ज्ञेयज्ञायकभावा- पन्नयोः परात्मनोः सामानाधिकरण्येनानुभवनाद्धर्मोऽहमधर्मोऽहमाकाशमहं कालोऽहं पुद्गलोऽहं
इसीप्रकार ‘क्रोध’ पदको बदलकर मान, माया, लोभ, मोह, राग, द्वेष, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन और स्पर्शनके सोलह सूत्र व्याख्यानरूप लेना चाहिये; और इस उपदेशसे दूसरे भी विचारने चाहिये ।
भावार्थ : — अज्ञानरूप अर्थात् मिथ्यादर्शन – अज्ञान-अविरतिरूप तीन प्रकारका जो सविकार चैतन्यपरिणाम है वह अपना और परका भेद न जानकर ‘मैं क्रोध हूँ, मैं मान हूँ’ इत्यादि मानता है; इसलिये अज्ञानी जीव उस अज्ञानरूप सविकार चैतन्यपरिणामका कर्ता होता है और वह अज्ञानरूप भाव उसका कर्म होता है ।।९४।।
गाथार्थ : — [त्रिविधः ] तीन प्रकारका [एषः ] यह [उपयोगः ] उपयोग [धर्मादिकम् ] ‘मैं धर्मास्तिकाय आदि हूँ’ ऐसा [आत्मविकल्पं ] अपना विकल्प [करोति ] करता है; इसलिये [सः ] आत्मा [तस्य उपयोगस्य ] उस उपयोगरूप [आत्मभावस्य ] अपने भावका [कर्ता ] कर्ता [भवति ] होता है ।
टीका : — वास्तवमें यह सामान्यरूपसे अज्ञानरूप जो मिथ्यादर्शन – अज्ञान-अविरतिरूप तीन प्रकारका सविकार चैतन्यपरिणाम है वह, परके और अपने अविशेष दर्शनसे, अविशेष ज्ञानसे और अविशेष रति(लीनता)से समस्त भेदको छिपाकर, ज्ञेयज्ञायकभावको प्राप्त ऐसे स्व-परका